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१५६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ है, वह ज्ञाता है, परिज्ञाता है। अरूपी सत्ता है, उसके लिए कोई उपमा नहीं है। वह अपद है, वचन-अगोचर है। कोई पदवाचक नहीं है। धवला के अनुसार-'जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गलरूप है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयम्भू है, शरीरी है, तथा मानव है, और जन्तु मानी, मायी, योगयुक्त, संकुट, असंकुट, क्षेत्रज्ञ
और अन्तरात्मा है।' महापुराण में इसके १० पर्यायवाचक शब्द हैं-'जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान् , आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी।'२
निष्कर्ष यह है-'जीता है, जीता था और जीएगा, इस प्रकार के कालिक जीवन गुण वाले को जीव कहते हैं।' 'जीव चेतना लक्षण है, अथवा जीव का लक्षण उपयोग है। जीव के जीवित रहने के दो आधार हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण। स्पर्शन, रसन आदि पांच इन्द्रियाँ, मन, वचन और काय-ये तीन बल, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य, ये दस द्रव्यप्राण कहलाते हैं और ज्ञान, दर्शन, आत्म-सुख और वीर्य (आत्मशक्ति), ये चार भावप्राण कहलाते हैं। इसलिए जीव का परिष्कृत लक्षण हुआ. जो द्रव्यप्राणों और भावप्राणों से जीवित है, जीवित था और जीवित रहेगा, वह जीव है।
१. (क) जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग-विसेसिदे । -पंचास्तिकाय गा. २७ (ख) कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिधणो य।
दसण-णाणुवओगो णिट्टिो जिणवरिंदेहिं॥ -भावपाहुड,१४८ गा. (ग) अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं। ..
जाण अलिंगगाहणे जीवमणिट्ठिसंठाणं। -समयसार गा. ४९ (घ) से न सहे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे इच्चेवा से न दीहे, न हस्से, न वट्टे,
न तंसे, न चउरंसे न परिमंडले, न किन्हें न लक्खे। न इन्थी, न परिसे, न अन्नहा, परित्रे, सन्ने, उवमा न विजए अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि।"
"तका तत्थ न विजइ, मइ तत्थ न गाहिया। -आचारांग १/५/६ २. (क) जीवो कत्ता य वत्ता य, पाणी भोत्ता य पोग्गलो।
वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो।। सत्ता जंतू य माणी य माई जोगी य संकडो।
असंकडो य खेत्तण्णू अंतरप्पा तहेव य॥ -धवला १/११२/गा. ८१, ८२ (ख) जीवः प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञः पुरुषस्तथा।
पुमानात्माऽन्तरात्म च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययः। -महापुराण २४/१०३. ३. (क) तत्र चेतनालक्षणोजीवः।
-सर्वार्थसिद्धि १/४/१४ (ख) उपयोगो लक्षणम्। ।
-तत्वार्थ २८ __(ग) कर्मग्रन्थ भा. ४ प्रस्तावना (मरुधरकेसरी) पृ. ९/१०
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