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________________ (११) तब क्या मानव की इन विभिन्न प्रकार की जिज्ञासाओं/प्रश्नों का कोई समुचित समाधान नहीं है, कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं है? __ है, और अवश्य है। जहाँ विज्ञान की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं, तर्क कुंठित हो जाते हैं, बद्धि काम नहीं करती, वहाँ कर्मविज्ञान सामने आता है, और मानव की प्रत्येक शंका, आशंका, जिज्ञासा एवं तर्क का समुचित युक्तियुक्त समाधान देता है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार यद्यपि कर्मों के अनेक और असंख्यात भेद हैं, किन्तु मुख्य रूप से आठ भेद माने गये हैं-१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय। इनके बन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रमण आदि अनेक भेद हैं और अन्तर्भेद तो अनगिनत हैं। प्रत्येक प्राणी प्रति समय कर्मों का बन्ध करता है। पिछले बँधे हुए कर्म उदय में आते हैं। और उनका फल भी भोगता है। ___ यहाँ विशेष रूप से स्मरणीय तथ्य यह है कि संसार के किन्हीं दो प्राणियों का कर्मबन्ध और उसका फलभोग समान नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक प्राणी के असंख्यात प्रकार के भाव, परिणाम और अध्यवसाय होते हैं, उनमें असंख्यात प्रकार की तरतमता रहती है। दो जीवों के परिणाम, अध्यवसाय कभी भी एक समान नहीं होते। जैन दर्शन तथा अन्य दर्शनों ने भी जीवों की संख्या अनन्त स्वीकार की है। और प्रत्येक जीव के परिणामों की असंख्यात प्रकार की तरमतमता होती है। इस अपेक्षा से परिणामों की संख्या भी अनन्तानन्त हो जाती है। और इन अनन्तानन्त मनोभावों/परिणामों में से प्रत्येक जीव-परिणाम कर्मबन्ध का कारण होता है। इसीलिए दो जीवों का कर्मबन्ध और उनका फलभोग समान नहीं होता। यही विचित्रता और विभिन्नता का तर्कसंगत आधार है। इतने विवेचन के उपरान्त अब हम व्यावहारिक जगत में उठते हुए प्रश्नों और ज्वलंत समस्याओं का कर्मविज्ञान के आधार पर समाधान करने का प्रयास करेंगे। - प्राणी जगत के अधिक विस्तार में न जाकर मानवजाति को ही लें। इसे और भी संक्षेप करके एक ही माता-पिता की संतानों तक सीमित करें। संक्षेपीकरण की क्रिया को और भी बढ़ाकर एक ही माता-पिता के युगल (एक साथ उत्पन्न-Twin) पुत्रों तक ले आयें। अब उनमें पाई जाने वाली विभिन्नताओं के कारणों को समझें। - युगल-पुत्रों में एक की बुद्धि-मंदता और दूसरे की तीव्र बुद्धि का रहस्य है-ज्ञानावरणीय कर्म। जिसका ज्ञान को आवरण करने वाला कर्म हलका अथवा विरल होगा उसकी बुद्धि, ज्ञान आदि तीव्र होगा, मेधा शक्ति भी बलवती होगी इसके विपरीत सघन आवरण वाला मन्दबुद्धि होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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