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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - २ १२७ परिणामों के प्रभाव से उसकी सप्तम नरक की आयु घटकर पहले नरक की रह गई थी। यह अपवर्त्तनाकरण का ही कार्य है। २ अपकर्षण और उत्कर्षण का कार्य जितने काल तक उदित रहने की या फल- प्रदान करते रहने की शक्ति को लेकर कर्मबंध को प्राप्त होता है, वह उसकी स्थिति कहलाती है। इसी प्रकार तीव्र या मन्द जैसा कुछ भी फल प्रदान करने की शक्ति को लेकर बन्ध को प्राप्त हुआ है, वह उसका अनुभाग कहलाता है। अपने कृतकर्म की स्वीकृति से तथा तद्विषयक आत्म-निन्दा, गर्हा, पश्चात्ताप आदि से बद्ध कर्म - संस्कारों की पूर्वोक्त शक्ति घटाई जा सकती है। अतः शुभ अध्यवसाय - विशेष के द्वारा पूर्वबद्ध एवं वर्तमान में सत्ता में स्थित कर्म की स्थिति और अनुभाग का घट जाना अपवर्त्तना या अपकर्षण है, इसके विपरीत इन दोनों का बढ़ जाना उत्कर्षण या उद्वर्त्तना है । स्थिति का अपकर्षण हो जाने पर सत्ता में स्थित पूर्वबद्ध कर्म अपने समय से पहले ही उदय में आकर झड़ जाते हैं, तथा स्थिति का उत्कर्षण होने पर वे कर्म अपने नियतकाल का उल्लंघन करके बहुत काल पश्चात् उदय में आते हैं। अपकर्षण तथा उत्कर्षण के द्वारा जिनजिन और जितने कर्मों की स्थिति में अन्तर पड़ता है उन्हीं के उदयकाल में अन्तर पड़ता हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य कर्म सत्ता में पड़े हैं, उनमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता । यह अन्तर भी कोई छोटा-मोटा नहीं होता, प्रत्युत एक क्षण में करोड़ोंअरबों वर्षों की स्थिति घट-बढ़ जाती है। जिस प्रकार स्थिति का अपकर्षण- उत्कर्षण होता है, उसी प्रकार अनुभाग का भी होता है । विशेषता केवल इतनी ही है कि स्थिति के अपकर्षण- उत्कर्षण द्वारा कर्मों के उदयकाल में अन्तर पड़ता है, जबकि अनुभाग के उत्कर्षण - अपकर्षण द्वारा उनकी फलदान - शक्ति में अन्तर पड़ता है। अपकर्षण द्वारा तीव्रतम शक्ति वाले कर्म 1. एक क्षण में मन्दतम हो जाते हैं, जबकि उत्कर्षण द्वारा मन्दतम शक्ति वाले संस्कार (कर्म) एक क्षण में तीव्रतम हो जाते हैं । ३ १. यह कथा दिगम्बर जैन ग्रन्थों में है । २. (क) पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना से भावांश ग्रहण, पृ. २५ (ख) जैन दर्शन में आत्मविचार पृ. १९६ (ग) जैनदर्शन ( न्यायविजयजी), पृ. ४५५ (घ) जैन दर्शन : मनन एवं मीमांसा ३. कर्म रहस्य (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १७२, १७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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