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कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ ११५ जगत् यह देखने की परवाह नहीं करता कि उन महापुरुषों को कितने प्रलोभनों या बलवान् निमित्तों के खिलाफ लड़ना है? जगत् तो सिर्फ अन्तिम परिणाम की ओर देखता है। वस्तुतः जय और पराजय का सच्चा स्तर जीतने में या हारने में नहीं है, किन्तु वह कितने विकट प्रसंगों के ताने-बाने में शुद्ध या अशुद्ध रहा है?, इसमें है। जिन्हें कर्म के बलवान् उदय के साथ संघर्ष में आना नहीं पड़ा, प्रलोभनों के प्रचण्ड पूर में बह जाने का प्रसंग नहीं आया है; तथा आन्तरिक शत्रुओं के साथ लड़कर विजय पाने के विकट मामले में सीधा निकलने का अवसर ही आया नहीं है, वे बलवान् या विजेता होने का दावा करें, यह स्वाभाविक है। परन्तु विजय का, सामर्थ्य का यथार्थ मूल्यांकन, इस बात पर निर्भर है कि कितने निमित्तों, कितने प्रलोभनों के विरुद्ध उसका सामर्थ्य काम आया; तथा कितनी तनातनी में उसकी आत्मा शुद्ध रह सकी है? मनुष्य जब ठोकर खाता है, भूल-भुलैया में पड़ जाता है, संसार की चकाचौंध से भ्रान्त हो जाता है, तब वहाँ उसके बलाबल का निर्णय सिर्फ उसके स्खलन या पतन पर से होना, उचित नहीं है; अपितु कितने संघर्ष या कितने प्रतीकार के पश्चात् वह स्खलित हुआ है, इस पर से करना योग्य है।
___ बन्ध और उदय की प्रक्रिया बन्धं और उदय की प्रक्रिया को ध्यान में लेना भी आवश्यक है। जिस प्रकार - प्रतिसमय एकसमयबद्ध प्रमाण द्रव्य बंधता है, उसी प्रकार प्रतिसमय एक समयप्रबद्ध
प्रमाण द्रव्य उदय में आता है; और फल भुगता कर झड़ जाता है। मान लो, पहले समय में एक समय प्रबद्ध प्रमाण द्रव्य बन्ध को प्राप्त हुआ। फिर दूसरे, तीसरे आदि समयों में बराबर दूसरा-तीसरा आदि समय-प्रबद्ध बंधता चला गया। सभी में निषेक रचना भी होती चली गई। अबाधाकाल बीतने के पश्चात् प्रथम समयप्रबद्ध का पहला एक निषेक उदय में आया। उस समय दूसरे, तीसरे आदि समयप्रबद्धों का कोई भी निषेक उदय में न आ सका; क्योंकि एक-एक समय पीछे बंधने के कारण उनका उदय भी पहले वाले से एक-एक समय पीछे ही होना उचित है। इसी प्रकार दूसरे समय में प्रथम और द्वितीय दो समयप्रबद्धों का एक निषेक मिलकर दो निषेक उदय में आए। तथा तीसरे समय प्रथम-द्वितीय-तृतीय समयप्रबद्धों के एक-एक विषेक मिलकर तीन निषेक उदय में आए। इस तरह क्रमशः चतुर्थ, पंचम आदि समयों में ४-५ आदि निषेकों का उदय जानना चाहिए।२.
१. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. ४१, ४२ । २. जैन सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ९१, ९२
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