________________
कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ १०७ कोटाकोटि सागर की स्थिति वाले कर्म का अबाधाकाल सौ वर्ष का तथा सत्तर कोटाकोटि सागर की स्थिति वाले कर्म का अबाधाकाल सात हजार वर्ष का होता है। अबाधाकाल पूरा होते ही कर्म अपना शुभाशुभ फल देने लगते हैं। आयुकर्म की अबाधा के नियम में कुछ अपवाद है।
निष्कर्ष यह है कि कर्म का बन्ध होते ही उसमें विपाक-प्रदर्शन की शक्ति नहीं पैदा हो जाती। यह होती है-एक निश्चित काल सीमा के पश्चात् ही। कर्म की यह अवस्था अबाधा कहलाती है। उस नियत काल के दौरान कर्म की अवस्थितिमात्र होती है, उसमें कर्तृत्व-क्षमता प्रगट नहीं होती। इसलिए अबाधाकाल कर्म का अवस्थान (ठहरने का) काल है। भगवतीसूत्र की वृत्ति में अबाधा का अर्थ किया है-जिस काल में बाधा अर्थात् कर्म का उदय न हो। अबाधा का एक फलित अर्थ होता है-अन्तर। अर्थात्-बन्ध और उदय के अन्तर (मध्य) का जो काल है, वह अबाधाकाल है।
अबाधाकालं के द्वारा स्थिति के दो भाग हो जाते हैं-(१) अवस्थितिकाल और (२) अनुभाव-काल अथवा निषेक काल। अबाधाकाल के दौरान केवल अवस्थिति होती है, अनुभाव नहीं। अनुभाव अबाधाकाल पूर्ण होने पर होता है। जितना अबाधाकाल होता है, उतना अनुभाव-काल से अवस्थिति-काल अधिक होता है। अबाधा-काल को छोड़ कर तो दोनों अवस्थितिकाल और निषेककाल या अनुभावकाल-समकालिक होते हैं।
(३) उदय-अवस्था : स्वरूप, कार्य और प्रेरणा जन्म-जन्मान्तर के बन्ध को प्राप्त अनन्त कर्मसंस्कार जब तक कार्मणशरीर के अथवा उपचेतना के कोश में कुछ करे-धरे बिना प्रसुप्त रहते हैं, तब तक वे सत्ता स्थित कहलाते हैं। जब वे ही सत्तास्थित कर्मसंस्कार जागृत होकर अथवा फलोन्मुख होकर जीव को नया कर्म करने के लिए अव्यक्तरूप से प्रेरित-प्रोत्साहित करते रहते हैं, तब उन बद्धकर्मों की उदयावस्था कहलाती है।
१. (क) मोक्षप्रकाश (धनमुनि), पृ. १६
(ख) जैनदर्शन (न्या.न्या. न्यायविजयजी), पृ. ४५७ (ग) जैनदर्शन : मनन और मीमांसा , पृ. ३१३ ।। (घ) निषेको नाम कर्मदलिकस्य अनुभवनाथ रचनाविशेषः। (कर्मपुद्गलों की एक
काल में उदय होने योग्य (भोगने योग्य) रचनाविशेष)-भगवतीसूत्र वृत्ति ६/३४ (ङ) बाधा-कर्मण उदयः, न बाधा अबाधा-कर्मणो बन्धस्योदयस्य चान्तरम्।
-भगवती-वृत्ति, ६/३४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org