SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ .. योगात्रव-कर्तव्यः प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध यों योगत्रय द्वारा गृहीत कर्म में से दो बातें फलित हुईं-कर्म का प्रदेश (Extent) और कर्म की प्रकृति (Nature)। योगास्रव की जिम्मेदारी यहाँ तक ही है, अर्थात् कर्मवर्गणा को खींचना और उनका जत्था इकट्ठा करना (प्रदेश-बन्ध करना) फिर . उस कर्म को मूल तथा उत्तर प्रकृति के रूप में विभक्त करना (प्रकृतिबन्ध करना) तत्पश्चात् वह कर्म क्तिने काल तक उदयमान रहेगा? तथा उसकी फलदायिनी शक्ति का कितना तारतम्य है? इस बारे में योगास्रव से कोई सम्बन्ध नहीं है। .... प्रकृतिबन्ध में भी न्यूनाधिकता ... प्रकृतिबन्ध में भी कई प्रकार की न्यूनाधिकता है। मुख्यतया यह बन्ध योग से सम्बद्ध होने से योग भी द्विविधरूप से प्रवृत्त होता है-शुभोपयोग और अशुभोपयोग। मन-वचन-काय के शुभ व्यापार अर्थात्-धर्मचिन्तन, परहितकार्य, सत्कार्य आदि अन्य प्रवृत्तियाँ, शुभोपयोग के अन्तर्गत हैं; जबकि इनसे विरुद्ध प्रवृत्ति अशुभोपयोग है। आत्मा-अनात्मा के विवेक (तत्वार्थश्रद्धान) से रहित चाहे जैसी शुभ-अशुभ योग प्रवृत्ति घातिकर्म के बन्धरूप ही होती है तथा अघातिकर्म में शुभोपयोग द्वारा सातावेदनीय आदि पुण्यप्रकृतियों का उपार्जन (बन्ध) होता है; जबकि अशुभोपयोग द्वारा असातावेदनीय आदि पापप्रकृतियों का उपार्जन। जहाँ शुभ और अशुभ की मिश्र योग-प्रवृत्ति होती है, वहाँ कितने ही पुद्गलांश पुण्यप्रकृति रूप में और कितने ही. पापप्रकृतिरूप में परिणत होते हैं। जिन महाभाग महान् आत्माओं की आत्मा-अनात्मा की विवेक-ख्याति (तत्वार्थ श्रद्धान) सुदृढ़ होती है, उनके घातिकर्म का बन्ध (उपार्जन) बहुत ही अल्प होना संभवित है। ____कषायभाव-निर्भर : स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध योग से कर्म के प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का विचार करने के पश्चात् विचार करना है-वे उक्त प्रकार से बँधे हुए कर्म कितने काल तक और कैसे तीव्र या मन्द फल प्रदान करेंगे ? वस्तुतः इन दोनों को क्रमशः स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कहते हैं। इन दोनों बन्धों का आधार आत्मा के कषाय-भाव पर निर्भर है। कषाय की व्याख्या हम मोहनीयकर्म की व्याख्या के सन्दर्भ में कर चुके हैं। फिर भी संक्षेप में कहना चाहें तो कषाय की व्याख्या हो सकती है-क्रोध, मान, माया और लोभरूप आत्मा के विभाव-परिणाम। अथवा आत्मा के स्वरूपज्ञानरूप सम्यक्त्व का और स्वरूपाचरणरूप देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यात चारित्र का जो विरोध करता है, वह कषाय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy