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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ ८७ • इस प्रकार क्रमशः विविध गतियों और योनियों में भटकते हुए जीव कर्मों का क्षय होने से आत्मशुद्धि को प्राप्त करके मनुष्य जन्म ग्रहण करते हैं। ___ यही कारण है कि बन्ध से लेकर कर्मफलभोग तक की बल्कि कर्मों के उपशम, क्षयोपशम और क्षय से जनित विविध अवस्थाओं का निदर्शन जैन कर्मविज्ञान ने प्रस्तुत किया है। बन्ध की ये विभिन्न अवस्थाएँ या तो बन्ध के संयोग और वियोग से सम्बन्धित हैं, या फिर बन्ध की सत्ता, उदवर्तना, अपवर्त्तना, संक्रमण, निधत्ति, निकाचना या उदय, उदीरणा, उपशमन, या क्षयोपशमन या क्षपण से सम्बन्धित हैं। ये सब बन्ध से ही सम्बद्ध विभिन्न पहलू हैं, जिनको जाने बिना बन्ध का विच्छेद करना अत्यन्त कठिन है। दमी हेतु से प्रेरित होकर कर्मबन्ध के कोने-कोने को छानकर कर्ममुक्ति के विविध क्रमिक उपायों से वीतराग केवलज्ञानी परमात्मपद को प्राप्त करने वाले परम आप्त सर्वज्ञ कर्मवैज्ञानिक शिरोमणि जिनेन्द्रों ने कर्मबन्ध की मुख्य दस या ग्यारह अवस्थाओं की प्ररूपणा की है। ये अवस्थाएँ कर्मों में बन्ध के पश्चात् होने वाली दस मुख्य क्रियाएँ हैं, जिन्हें कर्मविज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली में 'करण' भी कहा जाता है। उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) बन्ध (या बन्धनकरण), (२) उद्वर्तनाकरण, (३) अपवर्तनाकरण, (४) सत्ता, (५) उदय, (६) उदीरणा, (७) संक्रमण, (८) उपशमन, (९) निधत्ति या निधत्त और (१०) निकाचना (निकाचित)। कहीं-कहीं उदीरणा के बदले क्षय को एक अवस्था माना गया है। .. बन्ध से सम्बन्धित इन अवस्थाओं को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनमें से कतिपय करण तो दुर्भाग्य को सौभाग्य में तथा सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल सकते हैं। इसमें सारा का सारा परिवर्तन जीव के अपने हाथ में है, किसी ईश्वर, देवी-देव या किसी सत्ताधीश या धनाधीश के हाथ में नहीं। इसी तथ्य को हृदयंगम करके व्यक्ति अगर अशुभबन्ध से शुभबन्ध की ओर तथा शुभबन्ध से कर्म के उपशम, क्षयोपशम और क्षय की ओर मुस्तैदी से कदम बढ़ाए तो वह बन्ध से मोक्ष की ओर की अपनी यात्रा में सफल हो सकता है। इन दस करणों के विषय में कर्म-विज्ञान के द्वितीय भाग में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। १. कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं॥-उत्तराध्ययन ३/७ २. (क) पंचम कर्मग्रन्थ : प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री) (ख) कर्मरहस्य (जिनेन्द्रवर्णी), पृ. १६६ (ग) दस करणों के विशेष विवेचन के लिए पढ़ें, कर्मविज्ञान द्वितीय भाग के चतुर्थ खण्ड में कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद? लेख तथा जैनकर्म विज्ञान की विशेषता लेख।। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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