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________________ ४० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) (पैट्रोल-Petrol) आदि कुछ पदार्थ डालना पड़ता है। घड़ी की डिबिया (डायल) या बक्स के अन्दर थोड़ी-बहुत हवा तो अवश्य होती है, उस हवा में जरा-सा गर्दा मिला होता है, उस गर्दै के बहुत ही बारीक कण (रजकण) पुजों की चिकनाई के कारण उन पर जम जाते हैं, और उनकी चाल को बिगाड़ देते हैं। इसी प्रकार आत्मा में जब शुभाशुभ परिणाम आते हैं, तो वे रागद्वेष के कारण बनते हैं। तभी रागद्वेष से जन्य वे कर्म-परमाणु आत्मा में किसी भी प्रकार का स्पन्दन, हलन-चलन, क्रिया या प्रवृत्ति होते ही, पहले से बैठे हुए आत्मप्रदेशों के साथ मिल जाते हैं, घुल-मिलकर दूध-पानी की तरह सम्बद्ध हो जाते हैं। ये ही पर-पदार्थ हैं, जिनके कारण आत्मा में विकृति (बिगाड़) आती है। मूल में रागद्वेष या कषाय है इसमें चिकनाई का काम करते हैं। रागद्वेष या कषाय के बिना किसी प्रकार का कोई भी मैल शुद्ध आत्मा को नहीं लग सकता। वह मैल भी कहीं बाहर से खींचकर नई लाना पड़ता। जिस प्रकार घड़ी के अंदर की हवा में मिला हुआ गर्दा ही पुजों है चिपट कर उसकी चाल को बिगाड़ देता है, ठीक इसी तरह शरीर के अन्दर जे अतिसूक्ष्म पुद्गल-परमाणु विद्यमान होते हैं, वे ही रागद्वेष या कषाय-रूपी चिकनाई वे कारण आत्मा (आत्मप्रदेशों) से चिपटकर उसकी चाल को-स्वभाव को बिगाड़ देते हैं। ___उपर्युक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कर्म कोई विशेष वस्तु नहीं । जो कहीं से ढूंढ़ कर लाई जाती हो अथवा स्वयं ही कहीं से आती हो किन्तु जैसे घई के पुजों में चिपटे हुए उस मामूली गर्दे के समान जो घड़ी के अंदर की हवा में मिल रहता है, वही घड़ी की चाल को, उस के पुजों से चिपटकर बिगाड़ देता है। इस प्रकार आत्मा में भी राग-द्वेष या कषाय की चिकनाहट लग जाने से शरीर के अंद की हवा में मिले हुए गर्दे के अतिसूक्ष्म कण आत्मा में घुल-मिल जाते हैं। वस्तुतः वे ई आसपास के मामूली कर्मपरमाणु कषायवश आत्मा से चिपट कर उसकी चाल को उसके स्वरूप को बिगाड़ देते हैं।' आशय यह है कि आत्मा के साथ कर्मरूप पर-पदार्थ के मिलने से रागद्वेष के स्निग्धता के कारण आत्मा में बिगाड़ या विकार आता है, वह अशुद्ध हो जाती है। चुम्बक द्वारा सुई को आकर्षित करने के समान जीव और कर्म का आकर्षण __इस सम्बन्ध में ‘पंचाध्यायी' में कहा गया है-'जीव और कर्म दोनों पृथक-पृथव हैं; इन दोनों को परस्पर बन्धनबद्ध करने वाली चुम्बक पत्थर द्वारा आकर्षित हो जा वाली लोहे की सुई की तरह विभाव भाव की शक्ति है। द्रव्यकर्म जीव के ज्ञानात स्वभावों के विकार का कारण होता है और जीव का रागद्वेष कषायादि वैभाविव भाव द्रव्यकर्म के आम्रव का कारण होता है। आशय यह है कि आत्मा के वैभाविव १. (क) भाग्य और पुरुषार्थ (सूरजभान वकील) से भाव-ग्रहण, पृ. ११-१२ (ख) आत्मतत्व विचार से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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