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________________ = कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे? समस्त आत्माएँ अपने मूल स्वभाव में क्यों नहीं रहतीं ? आत्मा का मूल स्वभाव ज्ञान-दर्शन, सुख (आत्मिक आनन्द) और शक्ति है। वह अपने आप में शुद्ध है, निर्मल है, अनन्त अव्याबाध सुख और शक्ति से ओतप्रोत है। परन्तु वर्तमान में सांसारिक आत्माओं की दशा अशुद्ध है। वे न तो पूर्ण ज्ञान-दर्शन से युक्त हैं और न ही अव्याबाध सुख और शक्ति से सम्पन्न हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों पर दृष्टिपात करते हैं तो उनकी दशा गाढ़ मिथ्यात्व एवं मिध्याज्ञान से ग्रस्त, अन्धकाराच्छन्न है। तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों में भी अधिकांश जीव इसी घोर अज्ञान और मिध्यात्व के अन्धकार में पड़े हुए हैं। कहीं-कहीं कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव किसी निमित्त से अपनी अशुद्ध दशा को जान पाता है, उसकी दृष्टि विकसित होती है, किन्तु वह भी कदाचित् कर्मक्षयोपशमवशात् देशविरत हो सकता है, सर्वविरत नहीं। मनुष्यों में भी अधिकांश मिथ्यात्व-कुज्ञान के अन्धतमस् में पड़े रहते हैं। उनको स्व-पर का कुछ भी बोध नहीं होता। कदाचित् पूर्वकृत कर्मों के क्षयोपशमवशात कोई सम्यक-दृष्टि सम्पन्न हो जाता है, कोई सम्यज्ञान की किरण भी पा जाता है, और कोई देशविरति और कोई सर्वविरति चरित्र भी पा जाता है। मनुष्य भव में आत्मा को शुद्ध भावों में रखने तथा उसकी अशुद्ध दशा को एकांशतः अथवा सर्वांशतः दूर करने का अधिक चांस है। अन्य पंचेन्द्रिय जीवों-देवों, नारकों तथा तिर्यञ्चों को यह चांस नहीं मिलता कि वह सर्वांशतः शुद्ध दशा को प्राप्त हो आत्मा शुद्ध से अशुद्ध दशा में कैसे पहुँच जाती है ? प्रश्न होता है-आत्मा का स्वभाव तो अपने आप में शुद्ध है, ज्ञानमय है, फिर यह अपने स्वभाव को कैसे विकृत कर लेती है अथवा अशुद्ध दशा में कैसे पहुँच जाती है? इसका मूल कारण है-कर्मपुद्गलों के साथ आत्मा का संश्लिष्ट हो जाना-बद्ध हो जाना। जैसे-पानी का स्वभाव शीतल एवं निर्मल (स्वच्छ) है, किन्तु अग्नि और मिट्टी ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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