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________________ कर्मबन्ध का विशद स्वरूप ३१ आशय यह है कि पहले आसव (राग द्वेष या कषाय रूप भावानव) के द्वारा कर्मपुद्गलों का आकर्षण होता है, उसके पश्चात् दूसरे क्षण (समय) ही (कषाय या राग-द्वेष की चिकनाहट आत्म प्रदेशों पर होने से) कर्मपरमाणु चिपक जाते हैं। यही बन्ध की प्रक्रिया है। उत्तराध्ययनसूत्र (नि. शा. वृ.) में भी इसी लक्षण का समर्थन करते हुए कहा गया है-आत्मा और कर्म का परस्पर अत्यन्त आश्लेष हो जाना बन्ध है। इसी का ही विशद स्वरूप राजवार्तिक में बताया है-आत्मा और कर्म का एक दूसरे में अनुप्रवेश हो जाना बन्ध है।"२ कर्मप्रकृति में इसी तथ्य को दूसरी तरह से प्रतिपादित किया गया है-"बन्ध उसका नाम है, जहाँ आत्म-प्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों का अग्नि और लोहपिण्ड की तरह परस्पर अनुगमन-एक-दूसरे में प्रवेश हो जाता है।"३ बृहद्रव्य-संग्रह की टीका में अधिक स्पष्टीकरण के साथ बन्ध का स्वरूप बताते हुए कहा गया है-“बन्ध से अतीत, शुद्ध आत्मोपलब्धि के भावों से च्युत जीव का कर्मप्रदेशों के साथ संश्लेष हो जाना बन्ध है।४ ___ बन्ध के इन सब लक्षणों में संयोग, श्लेष या बन्ध के अन्तर और रहस्य को गहराई से समझ लेना आवश्यक है। यहाँ बन्ध को बालू के कणों की भांति संयोग या सम्पर्क मात्र नहीं समझना चाहिए। रजकणों का परस्पर मिलकर भी पृथक्-पृथक् रहना संयोग कहलाता है। संयोग भी दो प्रकार का होता है-(१) भिन्न-क्षेत्रवर्ती और (२) एकक्षेत्रवर्ती। रजकणों का संयोग भिन्न-क्षेत्रवर्ती होता है, क्योंकि वे परस्पर एक दूसरे से जुड़ते तो हैं;५ किन्तु एक दूसरे में अवगाह को प्राप्त न होकर पृथक्-पृथक् प्रदेशों पर स्थित रहते हैं, जबकि अनन्त परमाणुओं का, सूक्ष्म स्कन्धों का या विभिन्न वर्गणाओं का संयोग (बन्ध नहीं), एक क्षेत्रवर्ती है; क्योंकि ये परस्पर एक क्षेत्र में अवगाह को प्राप्त होकर एक ही प्रदेश में स्थित हो जाते हैं। एक-क्षेत्रावगाह रूप से आकाश के एक ही क्षेत्र में रहने पर भी ये परस्पर बन्ध को प्राप्त हुए नहीं कहला सकते; क्योंकि इस प्रकार उनका एक दूसरे के साथ कोई श्लेष (गाढ़) सम्बन्ध नहीं हो पाता। एक दूसरे से सर्वथा निरपेक्ष अपना-अपना स्वतंत्र परिणमन या कार्य करते रहते हैं। .. ध्यान रहे; आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर इस प्रकार के अनन्त द्रव्य रह रहे हैं, परन्तु वे स्वतंत्र सत्ता के कारण परस्पर बंधते नहीं, बंधे भी नहीं हैं। विवक्षित बन्ध में १. बन्धः आत्मकर्मणोरत्यन्त-संश्लेषः। - उत्तराध्ययन नि. शा. वृ. ४ २. आत्म-कर्मणोरन्योन्य-प्रदेशानप्रवेशात्मको बन्धः। -राजवार्तिक १/४/१७ ३. बन्धोनाम कर्मपुद्गलाना जीव प्रदेशैः सह वन्यया पिण्डवदन्योन्यानुगमः। ___-कर्मप्रकृति मलय. वृ. व. क. २/ पृ. १८ ४. बन्धातीत-शुद्धात्मोपलम्भनावना-च्युत-जीवस्य कर्मप्रदेशैः सह संश्लेषो बन्धः। ___-बृहद् द्रव्यसंग्रह, टीका, २८ ५. इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें-'कर्मसिद्धान्त' (जिनेन्द्रवर्णी) में 'बन्ध-परिचय' नामक पंचम प्रकरण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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