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________________ कर्मबन्ध का विशद स्वरूप २९ किसको किसका बन्ध है ? इसीलिए एक. आचार्य ने कहा-जैसे हाथी को अंकुश का बन्धन है; घोड़े को लगाम का बन्धन है, सर्प को पिटारे का बन्धन है, कुत्ते को गले के पट्टे का बन्धन है, पक्षी को पिंजरे का बन्धन है, पुरुष को स्त्री का बन्धन है; उसी प्रकार जीव को कर्मों का बन्धन है। कर्मबन्ध के विविध लक्षण : कर्म के साथ संयोग अर्थ में इसलिए 'विवेकविलास' ग्रन्थ में बन्ध का लक्षण बताया-कर्मों के बन्ध के कारण 'कर्मबन्ध' कहा गया है। गोम्मटसार में भी कर्मों के सम्बन्ध को बन्ध कहा गया है। जबकि कर्मग्रन्थ तृतीय भाग में बन्ध का लक्षण किया गया है-नये कर्मों को ग्रहण करना बन्ध है। तत्त्वार्थ भाष्य में कर्म के संयोग को कर्मबन्ध कहा है। आचारांग नियुक्ति में कहा गया-“कर्मद्रव्यों के साथ जीव का जो संयोग होता है, उसे ही बन्ध जानना चाहिए।" षड्दर्शन समुच्चय में भी इसी आशय से मिलता-जुलता लक्षण दिया गया है-शुभ-अशुभकर्मों का ग्रहण करना ही कर्मों का बन्ध इष्ट है। इसी प्रकार कर्मस्तव (कर्मग्रन्थ भा. ३ वृत्ति) में कहा गया है-"मिथ्यात्व आदि हेतुओं के द्वारा अभिनव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का ग्रहण करना बन्ध कहलाता है।"२ संयोग के विषय में भ्रान्ति और उसका निराकरण - निष्कर्ष यह है कि उपर्युक्त सभी लक्षणों में कर्मों के ग्रहण, सम्बन्ध या संयोग को एक या दूसरे प्रकार से 'कर्मबन्ध' कहा गया है। वैसे तो आत्मा और कर्म का संयोग प्रवाह रूप से अनादि३ है। यह तथ्य हमने भली-भाँति स्पष्ट कर दिया है, इसी खम्ड के चतुर्थ निबन्ध में। परन्तु संयोग शब्द व्यावहारिक जगत् में कुछ भ्रम पैदा करने वाला है। सामान्यतया व्यवहार में संयोग शब्द का प्रयोग पूर्व-वियोग को अनुलक्षित करके होता है। अर्थात् पहले जब दो वस्तुएँ पृथक्-पृथक स्थिति में हों, और बाद में वे १ (क) कर्मणां बन्धनात् बन्धो। -विवेकविलास ८/२५२ • (ख) कम्माणं संबंधो बंधो। -गोम्मटसार कर्मकाण्ड ४३८ (ग) अभिणव-कम्म-ग्गहणं बंधो। -कर्मस्तव ३ (घ) बन्धः कर्मणो योगः। -तत्त्वार्थ भाष्य १/३ (ङ) बन्यो हि जीव-कर्म-संयोग-लक्षणः। -आवश्यकनियुक्ति (म. वृत्ति) ६२ (च) कम्मदव्वेहिं समं संजोगो होइ उ जीवस्स ; सो बंधो नायव्यो। -आचा. नि.२६० (छ) शुभाशुभाना ग्रहणं कर्मणां बन्ध इष्यते। -षड्दर्शनसमुच्चय (वृ.) ४७ २. मिथ्यात्यादि हेतुभिरभिनवस्य नूतनस्य कर्मणः ज्ञानावरणादेग्रहणं उपादान बन्ध इत्युच्यते। ___-कर्मग्रन्थ भा. ३, कर्मस्तव स्वो. वृ. ३ ३. देखें, इसी सप्तम खण्ड के चतुर्थ निबन्ध-'कर्मबन्धः क्यों, कब और कैसे ?' में अनादि शब्द का विश्लेषण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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