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= दुःख-परम्परा का मूल : कर्मबन्ध ==
___ संसार के सभी जीवों को दुःख कर्मसंयोग के कारण इस अनादि-अनन्त संसार में प्रत्येक जीव किसी न किसी कारणवश दुःखी है। नरक के जीव तो अत्यधिक दुःखी हैं ही। स्वर्ग के जीव भी सुखी नहीं हैं। उनमें भी सुख-साधनों, वैभव, ऋद्धि, देवांगना, देवों के योग्य आवास आदि परिग्रह को लेकर प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, अधिकार-लिप्सा, आकुलता, वैमनस्य आदि के कारण कई प्रकार के मानसिक दुःख हैं। तिर्यंच जाति के जीवों में भी पराधीनता, पराश्रितता, अज्ञान, मिथ्यात्व, कषाय, रागादि विकार, ममत्व, मानसिक विकास की न्यूनता, व्यक्त भाषा का अभाव आदि कारणों से अनेक प्रकार के दुःख और क्लेश लगे हुए हैं। मनुष्यों में भी शारीरिक, मानसिक, वाचिक, बौद्धिक आदि विकास सर्वाधिक होने पर भी, तथा मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता होने पर भी परस्पर तारतम्य होने से तथा क्रोधादि कषायों की न्यूनाधिकता होने से जिसे वास्तविक आत्मसुख कहना चाहिए, उससे प्रायः अधिकांश मनुष्य दूर हैं। क्या आप बता सकते हैं-संसार के प्राणियों के जीवन में ये नाना दुःख किस कारण से हैं? जैनाचार्यों ने नपे-तुले शब्दों में बताया है
- संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्ख-परंपरा' ___“जीव को जो दुःख-परम्परा-एक दुःख के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरे दुःख की घटा प्राप्त होती है, उसका मूल कारण संयोग है-अर्थात् कर्मशास्त्रीय भाषा में कर्मबन्ध है-कर्मों के साथ जीवों का रागाद्यात्मक सम्बन्ध है।" ।
कर्मबन्ध को अनुभव से जाना जा सकता है आप कहेंगे उस कर्मबन्ध को हम कैसे जानें? क्योंकि कोई भी जीव रस्सी आदि से जकड़े हुए की तरह बंधा हुआ प्रत्यक्ष नजर नहीं आता। फिर कैसे मान लें कि जीव कर्मों से बंधा हुआ होने से ही नाना दुःख पाता है? इसके लिए हम कतिपय १. मरणविभक्ति प्रकीर्णक से
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