SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मबन्ध का अस्तित्व १३ आत्मा का इस प्रकार परभावों या विभावों से प्रभावित होना, उनसे सम्बद्ध होना ही कर्मबन्ध के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है। द्वितीय कारण : जीव का राग-द्वेषादियुक्त परिणाम कर्मबन्ध के अस्तित्व में द्वितीय कारण है-जीव का रागद्वेषादियुक्त परिणाम। यदि सांसारिक जीवों में राग-द्वेष तथा इनसे सम्बद्ध कषाय न होते तो कर्मबन्ध को मानने का कोई भी कारण न होता। जो प्राणी पहले से कर्मों से बंधा हुआ है, उसके रागद्वेषादिमय परिणाम अवश्य होते हैं। यद्यपि आत्मा का मूल स्वभाव राग-द्वेषादि करना नहीं है, तथापि वह स्व-भाव को भूल कर प्रमादवश, अज्ञानवश, योगों की चंचलतावश, तथा पूर्वबद्धकर्मवश पर-भावों में चला जाता है; अपने स्व-भाव का अतिक्रमण कर राग-द्वेषादि भावों के प्रवाह में बह जाता है। फिर तो कर्मों का बंधना स्वाभाविक है। अतः जीवों में पाया जाने वाला राग-द्वेष-कषायादि परिणाम भी कर्मबन्ध के अस्तित्व की झांकी करा देता है। तृतीय कारण : योगों की चंचलता कर्मबन्ध के अस्तित्व में तृतीय कारण है-मन-वचन-काया के योगों की चंचलता। आत्मा अपने आप में तो एकाकी है, शुद्ध है, ज्ञान-स्वरूप है, शाश्वत है, किन्तु पूर्वकृत कर्मबन्ध के कारण ही उसे मन, वचन और काय मिलते हैं। इन त्रिविध योगों के कारण चंचलता होती है। शरीर इनमें प्रधान है। शरीर के अवयवों की, वाणी की तथा इन्द्रियों की शुभाशुभ प्रवृत्तियाँ होती हैं। उन प्रवृत्तियों पर मन प्रियता-अप्रियता का, इष्ट-अनिष्ट का, अनुकूल-प्रतिकूल का, राग-द्वेष का, द्रोह-मोह का तथा आसक्ति और घृणा की छाप लगाता है। वाणी भी प्रिय-अप्रिय की अभिव्यक्ति करती है। इस प्रकार जो मन, वचन और काया की चंचलता होती है, साम्परायिक क्रिया होती है, अथवा रागादिमय प्रवृत्ति होती है, इसके पीछे कौन प्रेरक बल है? कहना होगा कि इन तीनों की चंचलता या कषाययुक्त क्रिया अथवा प्रवृत्ति के पीछे पूर्वबद्ध कर्म अथवा कर्म के पूर्व-संस्कार ही प्रेरक हैं। इससे सिद्ध है कि कर्मबन्ध समस्त संसारी प्राणियों के अगल-बगल में या आगे-पीछे लगा रहता है।' चतुर्थ कारण : प्राणियों की विभिन्नता एवं विविधता कर्मबन्ध के अस्तित्व का द्योतक चौथा कारण है-संसार में प्राणियों की विभिन्नता और प्रत्येक जाति के प्राणियों में भी विविधता। यदि कर्म का बन्ध न होता तो प्राणियों में ये विभिन्नताएँ, विचित्रताएँ, विरूपताएँ या विसदृशताएँ दृष्टिगोचर न होतीं। . एक जीव एकेन्द्रिय है, तो दूसरा पंचेन्द्रिय है। कोई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय है। .. १. कर्मवाद से भावांशग्रहण पृ. १०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy