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________________ कर्मबन्ध का अस्तित्व ११ कर्मबन्ध होते हैं। इस प्रकार संसार और कर्मबन्ध का चक्र चलता रहता है । संसारचक्र में जो छद्मस्थ जीव. स्थित हैं। उनकी ऐसी ही अवस्था होती हैं । " १ संसारी जीव परतंत्र होने से कर्मबन्धन से बद्ध है दूसरी दृष्टि से भी संसारी आत्मा कर्मबन्धन से बद्ध है, यह सिद्ध होता है। यद्यपि परमार्थ दृष्टि से आत्मा कर्मादि विकारों से रहित पूर्णतया शुद्ध है, परन्तु 'आप्तपरीक्षा' में इस तथ्य से इन्कार करते हुए कहा गया है - "विचारप्राप्त संसारी जीव कर्म-बन्धन से बंधा हुआ है, क्योंकि वह परतंत्र है। जैसे- हस्तिशाला में स्तम्भ से बंधा हुआ हाथी परतंत्र रहता है। इसी तरह संसारी जीव भी कर्मबन्धन से बँधा हुआ होने से पराधीन है । संसारी जीव पराधीन क्यों है, इस सम्बन्ध में हम 'कर्म का परतंत्री कारक स्वरूप' में स्पष्ट कर चुके हैं। २ यदि संसारी जीवों के साथ यह दुःखरूप परतंत्रकारक कर्म न बंधा होता तो किसी को कर्म के क्षय करने की, कर्म-निर्जरा करने की, पूर्वबद्ध कर्मों को भोग कर सर्व कर्मों से तथा सर्व दुःखों से मुक्त होने की साधना करने की क्या आवश्यकता थी? तथा आते हुए नवीन कार्मों को रोकने ( संवर) की, कर्मों से मुक्त होने के लिए बाह्यान्तर तप की, भेदविज्ञान की, ज्ञाताद्रष्टा बने रहने की, एवं सम्यक्दर्शन आदि रत्नत्रय की साधना में पुरुषार्थ क्यों करना पड़ता ? अर्थात् - कर्मबन्धन न होता तो कर्मक्षय करने की साधना का क्या अर्थ है? यदि कर्मबन्ध न होता तो संसारी जीवों में इतनी विविधता और विचित्रता क्यों दिखाई देती ? ३ इससे सिद्ध है कि समस्त संसारी जीवों के न्यूनाधिकं रूप से कर्म बंधे हुए हैं। वे ही जीव फिर अज्ञानतावश नये-नये कर्म बाँधते रहते हैं। संसारी जीवों के रग-रग में कर्मबन्ध न्यूनाधिक रूप से समाविष्ट है। अतः कर्मबन्ध के अस्तित्व से इन्कार करना वैसा ही है, जैसे कोई व्यक्ति यह कहे कि मेरी माता बन्ध्या है। कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले प्रमाण ही कर्मबन्ध के अस्तित्व के साधक . इस सब के अतिरिक्त अन्य कारणों एवं युक्तियों से भी कर्मबन्ध का अस्तित्व सिद्ध है। 'कर्म का अस्तित्व' नामक खण्ड में हमने जिन विविध युक्तियों, सूक्तियों, १. जो खलु संसारत्थो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म, कम्मादो होदि गदीसु गदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायते । हिंदु विसय-गहणं तत्तो रागो य दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं, भावो संसारचक्कवालम्मि ॥ २. (क) देखें, आप्तपरीक्षा (विद्यानन्दि स्वामी) पृ. १ (ख) देखें - कर्मविज्ञान खण्ड ३ में 'कर्म का परतंत्रीकारक स्वरूप' निबन्ध ३. देखें, महाबंध भा. १ में कर्मबन्ध-मीमांसा Jain Education International - पंचास्तिकाय गा. १२८, १२९, १३० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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