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________________ स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम ५०५ स्थिति-स्थान भी अपर्याप्त और पर्याप्त के (उत्तरोत्तर) संख्यातगुणे होते हैं, केवल अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थिति-स्थान असंख्यातगुणे हैं। योग-स्थानों के कारण स्थिति-स्थानों की उत्तरोत्तर वृद्धि किसी प्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर एक एक समय बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त स्थिति के जो भेद होते हैं, उन्हें स्थिति-स्थान कहते हैं। ये स्थिति-स्थान भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय के लब्धपर्याप्तक के जघन्य स्थिति-स्थान से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक उत्तरोत्तर संख्यातगुणे संख्यातगुणे होते जाते हैं। अर्थात्-ज्यों-ज्यों स्थिति प्रमाण बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों स्थिति-स्थानों की संख्या भी उत्तरोत्तर संख्यातगुणी बढ़ती जाती है, केवल अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थिति-स्थान असंख्यात गुणे होते हैं।२।। स्थिति-स्थानों के कारण होते हैं, अगणित अध्यवसायस्थान, जिनसे स्थितिबंध में तारतम्य होता है। - एक-एक स्थितिस्थान के कारण अगणित अध्यवस्थान होते हैं। अध्यवसाय-स्थान से मतलब है-कषाय के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, और मन्द, मन्दतर, मन्दतम उदय विशेष। अर्थात्-स्थितिबन्ध के कारण कषायजन्य आत्म-परिणाम को अध्यवसाय कहते हैं। एक स्थितिबन्ध का कारण एक ही अध्यवसाय-स्थान नहीं है, अपितु अनेक अध्यवसाय-स्थान हैं। यानी एक ही स्थिति नाना जीवों के नाना अध्यवसाय-स्थानों से बंधती है। मान लो, दस मनुष्य दो सागर प्रमाण देवायु का बन्ध करते हैं तो यह आवश्यक नहीं कि उन दसों मनुष्यों के एक सरीखे अध्यवसाय हों। अतः एक स्थितिस्थान के कारण अध्यवसाय-स्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों के अध्यवसाय-स्थान उत्तरोत्तर अधिक-अधिक होते हैं। इसी तरह ज्ञानावरणीययादि के जघन्य से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त अध्यवसाय-स्थानों की संख्या उत्तरोत्तर अधिकाधिक जाननी चाहिए। इनके क्रमशः चार स्थितिस्थान होते हैं। परन्तु आयुकर्म के चार स्थितिबन्ध क्रमशः होते हैं, जिनके अनुसार अध्यवसायस्थान असंख्यातागुणे बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार स्थितिबन्ध का सर्वांगपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।३ १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ५३, ५४ का संक्षिप्त भावार्थ, पृ. १४९-१५० (ख) योगों के अल्प बहुत्व, लक्षण तथा योगस्थानों की व्याख्या के लिए देखें-कर्मग्रन्थ भा. ५ पृ.१५० से १५४ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ५४ का संक्षिप्त भावार्थ, पृ. १५३ (ख) स्थितिस्थानों के विस्तृत विश्लेषण के लिए देखें, कर्मग्रन्थ भाग ५, पृ. १५४-१५५ ३. अध्यवसायस्थानों के स्थितिबन्ध से सम्बद्ध विवेचन के लिए देखें-कर्मग्रन्थ भा. ५, पृ. १५६, १५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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