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४९८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या
सत्रह प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी
सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्च गोत्र, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, इन १७ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान के अन्त में होता है। तथा वैक्रियषट्क (वैक्रियद्विक, देवद्विक, नरकद्विक) कां जघन्य स्थितिबन्ध असंज्ञी तिर्यंच-पंचेन्द्रिय करता है। चारों आयुकर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध संज्ञी और असंज्ञी दोनों करते हैं। तथैव शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थिति बन्ध बादर-पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव करता है । '
पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी
आशय यह है कि पूर्वोक्त १७ प्रकृतियों में से सातावेदनीय के सिवाय शेष १६ प्रकृतियाँ सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक ही बंधती है। अतः उनके बंधकों में यही गुणस्थान- विशेष विशुद्ध है। यद्यपि सातावेदनीय का बन्ध १३ वें गुणस्थान तक होता है, तथापि स्थितिबन्ध तो 90वें गुणस्थान तक ही होता है, क्योंकि स्थितिबन्ध का कारण. कषाय है और कषाय का उदय 90वें गुणस्थान तक ही होता है। इस दृष्टि से सातावेदनीय का जघन्य स्थितिबन्ध भी १0 वें गुणस्थान में ही बताया है।
वैक्रिय-षट्क का जघन्य स्थितिबन्ध असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च करते हैं। क्योंकि देव, नारक और एकेन्द्रिय तो नरकगति और देवगति में जन्म ही नहीं ले सकते तथा संज्ञीतिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य स्वभाव से ही उक्त ६ प्रकृतियों का मध्यम अथवा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। अतः असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के ही उनका जघन्य स्थिति बन्ध बताया है।
आयुकर्म के जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी
आयुकर्म की चारों प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध असंज्ञी जीव भी करते हैं, संज्ञी जीव भी। उनमें से देवायु और नरकायु का जघन्य स्थितिबन्ध पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य करते हैं, जबकि मनुष्यायु और तिर्यंचायु का जघन्य स्थितिबन्ध. एकेन्द्रियादि करते हैं। शेष ८५ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध अन्य एकेन्द्रिय जीवों में विशेष विशुद्धि न होने से बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव ही करता है। क्योंकि उनके बंधकों में वही विशेष विशुद्धि वाला होता है । विकलेन्द्रियादि में अधिक विशुद्धि होते हुए भी वे स्वभाव से ही प्रस्तुत प्रकृतियों की अधिक स्थिति बांधते हैं, इसलिए शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध का स्वामी बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव ही सिद्ध होता है । २
१. साय - जसुच्चावरणा विग्धं सुहुमो विउव्विछ असन्नी ।
सन्नीवि आउ बायर-पज्जेगिदिउ सेसा ॥४५ ॥
२. कर्मग्रन्थ भा. ५ गा. ४५ के विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से, पृ. १३२, १३३
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- कर्मग्रन्थ भा. ५, पृ. १३२
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