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________________ ४८० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) होता है, और जब कम संक्लिष्ट होते हैं, तो स्थितिबन्ध भी कम होता है। इसी कारण जितनी भी प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, प्रायः सभी की स्थिति अप्रशस्त प्रकृतियों की स्थिति से कम होती है, क्योंकि उनका बन्ध प्रशस्त परिणाम वाले जीव के ही होता है।' अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय-चतुष्क, संज्वलन-कषाय-चतुष्क, इन सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोटिकोटि सागर प्रमाण है। मृदु-स्पर्श, लघुस्पर्श, स्निग्ध-स्पर्श, उष्णस्पर्श, सुरभिगन्ध, श्वेतवर्ण और मधुररसनामकर्म की इन सात प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोटिकोटि सागर प्रमाण है। आगे के प्रत्येक वर्ण और प्रत्येक रस की स्थिति ढाई कोटिकोटि सागर प्रमाण अधिक-अधिक जाननी चाहिए। अर्थात्हरितवर्ण, आम्लरस नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति साढ़े बारह कोटिकोटि सागर प्रमाण, है। लालवर्ण और कषायरस नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोटिकोटि सागर प्रमाण है। नीलवर्ण और कटुकरस नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति साढ़े सत्रह कोटिकोटि सागर प्रमाण है तथा कृष्णवर्ण और तिक्तरस की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटिकोटि सागर प्रमाण है। प्रशस्त विहायोगति, उच्चगोत्र, सुरद्विक (देवगति, देवानुपूर्वी) स्थिर षट्क (स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति), पुरुषवेद, रति, हास्य, इन १३ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोटिकोटि सागरोपम प्रमाण है। तथा मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, स्त्रीवेद और सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति १५ कोटिकोटि सागरोपम-प्रमाण है। जबकि मोहनीय कर्म की उत्तर-प्रकृतिरूप मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। __भय, जुगुप्सा, अरति, शोक, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नीचगोत्र, तैजसशरीरादि पंचक (तैजस शरीर, कार्मणशरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात) और अस्थिरादि छह अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति), त्रस-चतष्क (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक), स्थावर, एकेन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति, नपुंसकवेद, अप्रशस्त-विहायोगति, उच्छ्वास-चतुष्क (उच्छ्वास, उद्योत, आतप और पराघात) गुरु, कठोर, रूक्ष, शीत एवं दुर्गन्ध; इन ४२ उत्तर-प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटिकोटि सागरोपम-प्रमाण है। इसी प्रकार तीर्थकरनाम और आहारक-द्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः-कोटिकोटि सागरोपम-प्रमाण है। मनुष्यायु १. वही, विवेचन, पृ. ९० २. कर्मग्रन्थ भा. ५ के टब्बे के अनुसार-जो मूल शरीर नामकर्म की स्थिति है, वही शरीर के अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघातनामकर्म की स्थिति समझनी चाहिए। -कर्मग्रन्थ भा.५, पृ. ९६ ३. अन्तःकोटिकोटि सागरोपम-कुछ कम कोटिकोटि को अन्तःकोटिकोटि कहते हैं। आशय यह है कि तीर्थकर नामकर्म, आहारक शरीर एवं आहारक अंगोपांग, इन तीनों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति कोटिकोटि सागर से कुछ कम है और जघन्य स्थिति उससे संख्यातगुणी हीन है। अर्थात् संख्यातवें भाग प्रमाण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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