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________________ १ कर्मबन्ध का अस्तित्व सजीव-निर्जीव वस्तुओं का परस्पर बन्ध: प्रत्यक्षगोचर संसार में सर्वत्र ईंट, सीमेंट आदि पदार्थ मकान के रूप में बंधे हुए प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। अनेक कागजों को परस्पर मिलाकर, उन्हें सीं कर और चिपका कर पुस्तक की जिल्द बांधी जाती है; यह कागजों का परस्पर बन्ध भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इसी प्रकार एक जमींदार के घर में घोड़ा, गाय, भैंस आदि पशु रस्सी के द्वारा खूंटों से बंधे हुए नजर आते हैं। आटा, पानी आदि मिल कर गूँदने से एक पिण्ड बंध जाता है. और उसकी रोटी बनती हुई हम देखते हैं। इसी प्रकार संसार में अगणित चीजें बंधी हुई प्रत्यक्ष मालूम होती हैं। यही नहीं, अध्यापक अध्यापन कार्य से, वकील वकालत के पेशे से, व्यापारी अपने मनोनीत पदार्थ के व्यापार से, किसान कृषि से और चिकित्सक चिकित्सा-कार्य से बंधे होते हैं। मां अपनी संतान के पालन-पोषण के लिए बंधी होती है। इसी प्रकार कई लोग अमुक-अमुक सजीव (परिवार, समाज आदि के सदस्यों) तथा निर्जीव (धन, सम्पत्ति, मकान, दुकान, कार, बंगला आदि) पदार्थों (द्रव्यों) के प्रति ममत्ववश बंधे होते हैं। अधिकांश लोग अमुक-अमुक क्षेत्र (ग्राम, नगर, प्रान्त, राष्ट्र आदि) के प्रति मोहवश बंधे रहते हैं। कई लोग अमुक काल से बंधे होते हैं। दफ्तर, दूकान, सर्विस आदि पर पहुँचने के लिए वे समय से बंधे होते हैं। इसी प्रकार कई वस्तुएँ भी समय से बंधी होती हैं; जैसे- रेलगाड़ी, बस, विमान, रेडियो प्रसारण, टाईमबम आदि । संसार में विवाहित स्त्री-पुरुष प्रणयभाव से, माता-पुत्र वात्सल्यभाव से, गुरु-शिष्य उपकार्य-उपकारक भाव से तथा नौकर -मालिक स्वामी सेवक भाव से बंधे हुए होते हैं। इस प्रकार विभिन्न कोटि के व्यक्ति परस्पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से परस्पर सम्बद्ध और प्रतिबद्ध देखे जाते हैं। ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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