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४५० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) एक ही प्रकार के कर्मपरमाणु भिन्न-भिन्न रस वाले कैसे हो जाते हैं ? ।
आशय यह है कि जीव के साथ बँधने से पहले कर्म-परमाणुओं में उस प्रकार का विशिष्ट रस (फलजनक शक्ति) नहीं रहता, उस समय वे प्रायः नीरस और एकरूप रहते हैं, किन्तु जब वे जीव द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, तब ग्रहण करने के समय में ही जीव के कषायरूप परिणामों का निमित्त पाकर उनमें अनन्तगुणा रस पड़ जाता है, जो जीव के गुणों का घात आदि तथा उन पर अनुग्रह आदि करता है; उसे ही रसबन्ध कहते हैं। जैसे-सूखा घास नीरस होता है, लेकिन ऊंटनी, भैंस, गाय और बकरी के पेट में पहुँचकर वह दूध (क्षीररस) के रूप में परिणत हो जाता है तथा उनके उस क्षीररस चिकनाई में की न्यूनाधिकता देखी जाती है। अर्थात्-उसी सूखे घास को खाकर ऊंटनी खूब गाढ़ा दूध देती है, जिसमें चिकनाई बहुत अधिक रहती ' है। भैंस के दूध में उससे कम गाढ़ापन और चिकनाई रहती है। गाय के दूध में उससे भी कम गाढ़ापन और चिकनाई होती है, किन्तु बकरी के दूध में गाय के दूध से भी कम गाढ़ापन और चिकनाई होती है। इस प्रकार जैसे एक ही प्रकार का घास भिन्न-भिन्न पशुओं के पेट में जाकर भिन्न-भिन्न रसरूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्म-परमाणु भिन्न-भिन्न (तीव्र-मन्दादि) कषाय-रूप परमाणुओं का निमित्त पाकर भिन्न-भिन्न (शुभ-अशुभ-तीव्रमन्दादि) रस वाले हो जाते हैं। जो आगे चलकर उनमें उसी प्रकार से जीव को फल-प्रदान करने की शक्ति पैदा हो जाती है। इसी का नाम रसबन्ध या अनुभागबन्ध है। अनुभागबन्धों के दो प्रकार : तीव्र और मन्द
जैसे ऊँटनी के दूध में अधिक शक्ति होती है, भैंस और गाय के दूध में उससे उत्तरोत्तर कम शक्ति होती है, और बकरी के दूध में उन तीनों से भी कम शक्ति होती है। इसी प्रकार शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की प्रकृतियों का अनुभाग (फलदानशक्ति) तीव्र भी होता है, मन्द भी। इस दृष्टि से अनुभागबन्ध के दो प्रकार होते हैं-तीव्र अनुभागबन्ध और मन्द अनुभागबन्ध। ये दोनों प्रकार के अनुभाग बन्ध शुभ प्रकृतियों में भी होते हैं और अशुभ प्रकृतियों में भी।२ तीव्र और मन्द अनुभागबन्ध के कारण ____ इसीलिए कर्मग्रन्थकार शुभ और अशुभ प्रकृतियों के तीव्र और मन्द अनुभागबन्ध के कारण बतलाते हुए कहते हैं-संक्लेश-परिणामों से अशुभ प्रकृतियों में तीव्र अनुभागबन्ध होता है, तथा शुभभावों से शुभप्रकृतियों में तीव्र अनुभागबन्ध होता है।
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. २२६
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ विवेचन (रसबन्धाधिकार) (पं. कैलाशचन्द्रजी) से पृ. १७०-१७१।। . २. वही, पृ. १७१
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