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४४८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) बन्ध के अधीन है। वस्तुतः विशिष्ट कर्मबन्ध में इस (अनुभाग) बन्ध के आधार से ही प्रायः स्थिति का बन्ध होता है। अतः प्राधान्य रसबन्ध का है।' रस, अनुभाग, अनुभाव, अनुभव आदि एकार्थक हैं ___ अभिधान राजेन्द्र कोष में अनुभाग, रस, अनुभाव को एकार्थक कहा है। कर्मग्रन्य में रस को अनुभाग कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में विपाक (फलभोग) को अनुभाव कहा है। प्रज्ञापनासूत्ररे में प्रत्येक कर्म की मूल-उत्तर-प्रकृतियों के अनुभावों का विस्तृत निरूपण किया है। कर्मविज्ञान के द्वितीय भाग में हमने इस सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डाला है। अनुभाग का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी कर्मग्रन्थ में इस प्रकार किया गया है-"अनु अर्थात्-पश्चात-बन्ध के उत्तरकाल में, भजन यानी सेवन अनुभजन है। अनुभजन ही अनुभाग है।" स्थानांग वृत्ति में कर्मों के उदय अथवा तीव-मन्दादि रस को अनुभाग कहा है। सूत्रकृतांग में कमों के विपाक को अनुभाग या रस कहा है।३ . मूलप्रकृति-अनुभागबन्ध और उत्तर-प्रकृति-अनुभागबन्ध ।
ऐसा अनुभागबन्ध की अपेक्षा दो प्रकार का है-मूल-प्रकृति-अनुभागबन्ध और उत्तरप्रकृति-अनुभागबन्ध। मूल प्रकृतियाँ आठ हैं। बन्ध के समय इन्हें जो अनुभाग प्राप्त होता है, उसे मूल प्रकृति अनुभाग कहते हैं तथा बन्ध के समय उत्तर-प्रकृतियों को जो अनुभाग प्राप्त होता है, उसे उत्तर-प्रकृति अनुभाग-बन्ध कहते हैं। अनुभागबन्ध-रसबन्ध का कार्य
जीव को कर्मबन्ध के उत्तरकाल में शुभ या अशुभ-पुण्य या पाप कर्मों का फल किस-किस तीव्र-मन्द-मध्यम रूप से भोगना है, इसका दारोमदार मुख्यतया उस रसबन्ध या अनुभागबन्ध पर है; रसबन्ध ही यानी जीव के द्वारा बांधा हुआ शुभाशुभ रस ही, उसे शुभाशुभ फल (उदय में आने पर) भुगवाता है। रसबन्ध या अनुभागबन्ध का मूल कारण कषाय है। यों तो कर्मबन्ध के मुख्यतया दो (राग-द्वेष) या मिथ्यात्वादि
१. (क) महाबंधो भा. ६ की प्रस्तावना से, पृ. १५-१६
(ख) रसबंधी (विषय-परिचय) से, पृ. २२-२३ २. प्रज्ञापना पद २३ ३. (क) अनुभागः रसः अनुभाव इति पर्यायाः ।
(ख) अनुभागो रसः प्रोक्तः प्रदेशो दल-संचयः । (ग) कर्मणां विपाके । (घ) उदये रसे च। (ङ) तीव्रादि भेदेरसे । (च) अनु-पश्चाद् बन्धोत्तरकाल भजन-अनुभागः ।
-अभिधान रा. कोष भा. १ पृ. ३९३
-कर्मग्रन्य भा. ५ वृत्ति -सूत्रकृतांग श्रु. १,५ अ. १ उ. -स्थानांग स्थान ७ वृत्ति
कर्मग्रन्थ -कर्मग्रंन्य भा.६
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