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________________ घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ४१३ अघातिकर्म के प्रकार, नाम और प्रभाव आत्मा के प्रतिजीवी गुण चार हैं-(१) अव्याबाध सुख, (२) अटल अवगाहनाशाश्वत स्थिरता, (३) अमूर्तिकत्व और (४) अगुरुलघुत्व। इन चारों के अनुरूप शरीर, आयु तथा सुख-दुःखानुभव एवं भोग सम्पादन की कारणभूता, अघातिकर्म-प्रकृति भी चार प्रकार की है-(१) वेदनीय, (२) आयु, (३) नाम और (४) गोत्र। इष्टानिष्ट बाह्य विषयों या सांसारिक सुख-भोगों का संयोग-वियोग कराने तथा सुख-दुःख का वेदन कराने वाली कर्म प्रकृति वेदनीय है। नरकादि चार गतियों में या शरीरों में निश्चित काल पर्यन्त जीव को रोक रखने वाली प्रकृति का नाम आयु कर्म है। नरकादि चार गतियों में, एकेन्द्रियादि पांच जातियों के सुन्दर-असुन्दर, बलिष्ठ-निर्बल, शुभ-अशुभ, आदि अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र एवं रंग बिरंगे पृथ्वी-जल आदि पंच स्थावर जीवों से लेकर मनुष्य पर्यन्त के शरीरों तथा उससे सम्बद्ध अन्य परिस्थितियों का निर्माण करने वाली कलाकार या चित्रकी प्रकृति का नाम नामकर्म है। जीव को उन शरीरों में उच्च-नीचपन का व्यवहार कराने वाली गोत्रकर्म-प्रकृति है। इन चारों अघाती कर्मों में वेदनीय कर्म जीव के अव्याबाध सुख को आवृत-सुषुप्त कर देता है। इसी कर्म के कारण जीव को नाना प्रकार के शारीरिक सुख-दुःख की प्राप्ति होती है। आयुकर्म आत्मा की अटल अवगाहना तथा शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता। नामकर्म आत्मा की अमूर्तिकत्व या अरूपी अवस्था को आवृत किये रहता है और गोत्र कर्म आत्मा के अगुरु-लघुत्व भाव को रोकता है। इस प्रकार ये चारों अघाती कर्म बाह्य अर्थापेक्षी हैं। इस प्रकार अघातीकर्म जीव के गुणों पर सीधा प्रभाव नहीं दिखाते, सीधा असर नहीं करते। फिर भी इन अघातिकमों के उदय से जीव को किसी न किसी शरीर के कारागार में बद्ध होकर रहना पड़ता है। सामान्यतया कर्म आत्मा को पुनः-पुनः जन्म-मरणात्मक संसार में भ्रमण कराते हैं। अघातीकर्मों के उदय से आत्मा का पौद्गलिक द्रव्यों से सीधा सम्बन्ध जुड़ता है। इसके कारण अमूर्त आत्मा भी मूर्तवत् बनी रहती है। और इन अघातिकर्मों का शीघ्र असर शरीर, इन्द्रिय, अंगोपांग, आयुष्य, मन-वचन तथा विषय-सुखोपभोग के सभी साधन इत्यादि पर होता है। वैसे इनको कर्मविज्ञान वेत्ताओं ने भुने हुए बीज के समान बताया है, जिनमें अपने आप में नये कर्मों को उपार्जन करने या आत्मगुणों का विनाश करने का सामर्थ्य नहीं होता। आशय यह है कि कर्म-परम्परा का अविच्छिन्न प्रवाह जारी रखने में ये कर्म असमर्थ होते हैं। ये जीव की शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा में निमित्त बनते हैं। कषाय पाहुड में स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जिनके उदय का प्रधानतया कार्य संसार की निमित्तभूत सामग्री प्रस्तुत करना है उन्हें अघातियाकर्म कहते हैं।२ १. (क) कर्म सिद्धान्त से, पृ. ५८ (ख) कर्मविज्ञान तृतीय खण्ड से पृ. ५७६-५७७ २. कषायपाहुइ १/१. १/७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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