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घाती और अघाती कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ४०३ या शक्ति को कितना ही आवृत, कुण्ठित, प्रतिबद्ध या बाधित कर दें, अन्ततोगत्वा आत्मा अपनी अनन्तज्ञानादि शक्तियों को न्यूनाधिक तथा पूर्णमात्रा में प्रकाशित कर पाता है।
घातिकर्म सम्बन्धी विवेचन कर्मविज्ञान के तृतीय खण्ड में फिर भी घातिकों की उत्कटता, इनके द्वारा आत्मगुणों का घात करने की प्रक्रिया, तथा घातिकर्मों के सर्वथा नाश होने पर होने वाली स्थिति आदि के विषय में जानना आवश्यक है। हमने 'कर्मविज्ञान' तृतीयखण्ड के 'कों के दो कुल : घातिकुल और अघातिकुल' शीर्षक निबन्ध में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। यहाँ तो घाती-अघाती कर्म-प्रकृतियों के सम्बन्ध में कुछ विशिष्ट तथ्यों का ही निरूपण करना उचित होगा।
घातिकर्मों का मुखिया : मोहनीयकर्म और उसकी प्रबलता इन चार घातिकर्मों में सबसे प्रबल और सर्वाधिक खतरनाक मोहनीयकर्म है। वह आत्मा के स्वभाव, गुणों और क्षमताओं को सबसे अधिक आवृत, कुण्ठित और प्रतिबद्ध करता है, वही आत्मा की ज्ञानादि शक्तियों को अधिकाधिक दबाकर जीव में मूढता, अविवेक, अन्धविश्वास, अज्ञानता, दृष्टिराग, पूर्वाग्रह, तत्त्व के प्रति अश्रद्धा एवं रत्नत्रयरूप धर्ममार्ग पर चलने में जीव की शक्ति को कुण्ठित एवं प्रतिबद्ध करता है। वह जीव को अपनी वास्तविक शक्तियों का भान नहीं होने देता। फलतः आर्त्त-रौद्रध्यान कराता है। मोहनीय कर्म ही जन्ममरणरूप संसार का मूल बीज है। वही जीव को अपने आत्म-स्वरूप का भान भुला कर कभी क्रोध, कभी अहंकारममकार, कभी मोह, कभी माया और कभी लोभ करवाता है। वह जरा-जरा-सी बात पर रुलाता है, हंसाता है, कभी उदास बना देता है। जिस प्रकार नाटक के रंगमंच पर बहुरूपिया नाट्य-कलाकार दर्शकों को अपनी कला से ऐसा वशीभूत कर लेता है कि वे नाट्य मंच पर भर्तृहरि के दृश्य को देखकर सहसा विरक्त हो जाते हैं, और हिमालय की ओर चल पड़ते हैं। कभी नाट्यमंच पर किसी खलनायक का पार्ट देखकर क्रोध से आगबबूला हो उठते हैं, कभी-कभी तो उसे मारने के लिए अपने स्थान से उठकर मंच की ओर दौड़ पड़ते हैं। कभी दृश्य इतना करुण हो जाता है कि उसे देखते ही दर्शक सहसा फूट-फूट कर रो पड़ते हैं। कुछ ही अर्से पहले सिनेमा के पर्दे पर 'एक दूजे के लिए' चलचित्र देखकर कुछ नवयुवक आत्महत्या कर बैठे, कई
१. सव्वजीवाणं वि य णं अक्खरस्स अणतभागो णिच्चुग्घाडियो हवइ।
जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेण जीवा अजीवत्तं पावेज्जा ॥ सुट्ठवि मोहसमुदये होइ पभा चंद-सूराण।
-नन्दीसूत्र सू. ४३ २. देखिये-कर्मविज्ञान, तृतीय खण्ड में कर्मों के दो कुल : घातिकुल और अघाति कुल, शीर्षक
निबन्धा
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