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________________ उत्तर - प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ५ ३६७ मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दादि विषय ग्रहण करके उनसे सुख-दुःख आदि का अनुभव करना । हाथ-पैर, जीभ आदि अवयवों से दान, हिंसा-अहिंसा, दया आदि शुभ-अशुभ क्रिया द्वारा शुभाशुभ कर्मों का बन्ध करना, बद्धकर्मों के शुभ-अशुभ विपाक का वेदन करना तथा तप, त्याग, धर्मध्यान या पवित्र अनुष्ठानों द्वारा कर्म-निर्जरा करना आदि सब उपभोग कहलाता है। परन्तु यह उपभोग तो औदारिकादि प्रथम चार शरीरों से ही सिद्ध होता है, अन्तिम कार्मण शरीर से सिद्ध नहीं होता। इसलिए औदारिकादि प्रथम चार को सोपभोग और अन्तिम कार्मण शरीर को निरुपभोग कहा गया है। चार शरीर सोपभोग हैं, कार्मण शरीर निरुपभोग है एक प्रश्न और है- औदारिक, वैक्रिय और आहारक ये तीन शरीर तो इन्द्रियसहित और सावयव है, इसलिए इनके द्वारा पूर्वोक्त प्रकार का उपभोग साध्य हो सकता है, लेकिन तैजस शरीर तो न सेन्द्रिय है और न सावयव है। ऐसी स्थिति में उसे सोपभोग कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि तैजस शरीर सेन्द्रिय और सावयव नहीं है, तथापि पाचनादि कार्यों में, ऊर्जाशक्ति, तेजस्विता बढ़ाने में उपभोग होता है, तथा तेजोलेश्या - शीतलेश्या की लब्धि विशिष्टं तप के द्वारा प्राप्त करके उस शरीर द्वारा कोपभाजन को शाप देने, जलाने तथा प्रसन्न होकर अनुग्रह प्राप्त होने पर अनुग्रह करने एवं शान्ति पहुँचाने में उपभोग हो सकता है। इस तरह तैजस शरीर द्वारा शाप - अनुग्रह आदि में उपभोग होने से सुख-दुःख आदि का अनुभव, शुभाशुभ कर्म का बन्ध व फलभोग आदि उसके उपभोग माने गए हैं। कार्मण शरीर ही सब शरीरों की जड़ और निरुपभोग यद्यपि तैजस शरीर की तरह कार्मण शरीर भी सेन्द्रिय और सावयव न होने पर भी वह सभी शरीरों की जड़ है। अतएव कार्मण शरीर को अन्य शरीरों के उपभोग का मूल सूत्रधार होने से पूर्वोक्त चार शरीरों के द्वारा किये जाने वाले उपभोग को कार्मण शरीर का उपभोग मानना चाहिए। किन्तु कार्मण शरीर को निरुपभोग कहने का तात्पर्य यही है कि जब तक अन्य शरीर सहायक न हों, तब तक कार्मण शरीर अकेला न तो इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण कर सकता है, और न सुखदुःखानुभव आदि रूप में उसका डायरेक्ट उपभोग कर सकता है। अतः विशिष्ट उपभोग को सिद्ध करने में साक्षात् साधन औदारिक आदि चार शरीर ही हैं। इसलिए इन्हें सोपभोग और कार्मण शरीर को निरुपभोग कहा गया है। निष्कर्ष यह है कि सोपभोगत्व और निरुपभोगत्व का मूलाधार साक्षात् और परम्परा है। ' १. (क) इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरूप भोगः । (ख) कर्म - प्रकृति से, पृ. ७०-७१ (ग) निरुपभोगमन्त्यम् । (घ) कम्म-विगारो कम्ममट्ठविहं विचित्त कम्म निप्फनं । . सब्वेसिं सरीराणं कारणभूयं मुणेयव्वं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - सर्वार्थसिद्धि २/४४ - तत्वार्थसूत्र २/४५ - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका १३ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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