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________________ उत्तर- प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - ५ ३६५ की अपेक्षा लोहे का पौद्गलिक द्रव्य अधिक है, लेकिन क्रमशः सूक्ष्म होने पर भी तैजसशरीर के पूर्ववर्ती तीनों शरीरों में पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर- उत्तर शरीर - प्रदेश क्रमशः असंख्यात असंख्यात गुणे अधिक हैं और परवर्ती दो शरीर (तैजस और कार्मण) क्रमशः प्रदेशों से अनन्त - अनन्त गुणे होते हैं। आदि के तीन शरीर एक दूसरे से असंख्यात गुणे तथा अन्तिम दो अनन्तगुणे वैसे तो सभी शरीर अनन्त - परमाणुओं से बने स्कन्ध से बनते हैं; क्योंकि जब तक परमाणु अलग-अलग हों, तब तक उनसे शरीर नहीं बनता है; किन्तु परमाणुओं से बने जिन स्कन्धों से शरीर की रचना होती है; वे स्कन्ध ही शरीर के आरम्भिक द्रव्य हैं, और सभी शरीरों के वे आरम्भिक स्कन्ध अनन्त परमाणुओं से बने हुए होने चाहिए। इस अपेक्षा से औदारिक आदि सभी शरीरों के आरम्भिक स्कन्ध अनन्त परमाणुओं से बने होने पर भी औदारिक शरीर आरम्भिक स्कन्ध के अनन्त परमाणुओं से वैक्रिय शरीर के आरम्भिक स्कन्धगत अनन्त परमाणु असंख्यात गुणे अधिक होते हैं। यही असंख्यातगुणी अधिकता वैक्रिय से आहारक शरीर स्कन्धगत परमाणुओं की अनन्त संख्या में भी समझनी चाहिए। किन्तु तैजस शरीर के स्कन्धगत परमाणुओं की अनन्त संख्या आहारकशरीर के स्कन्धगत अनन्त परमाणुओं से अनन्तगुणी अधिक होती है। इसी तरह तैजस शरीर से कार्मण-शरीर के स्कन्धगत परमाणु अनन्तगुणे अधिक हैं। इस विवेचन से स्पष्ट है कि पूर्व - पूर्व शरीर की अपेक्षा उत्तर - उत्तर शरीर का आरम्भिक द्रव्य अधिकाधिक ही होता है, लेकिन पुद्गलों की परिणमन करने की शक्तियों की विचित्रता के कारण ही उत्तर- उत्तर का शरीर सघन, सघनतर और सघनतम बनता जाता है, इसी कारण यह पंचविध शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम कहलाता है । ' तैजस- कार्मणशरीर अप्रतिघाती यही कारण है कि तैजस और कार्मण शरीर क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होने के कारण ये दोनों शरीर प्रतिघातरहित होते हैं। इनका प्रवेश सर्वत्र निर्बाध गति से बिना रुकावट के हो सकता है। लोक में कहीं भी ये प्रतिघातित नहीं होते। कैसी भी कठोरतम वस्तु इन्हें प्रवेश करने से रोक नहीं सकती, क्योंकि ये दोनों शरीर अत्यन्त सूक्ष्म हैं, और सूक्ष्म वस्तु का बेरोकटोक सर्वत्र प्रवेश पाना प्रत्यक्षसिद्ध है। जैसेलोहपिण्ड में अग्नि । वैक्रिय और आहारक शरीर के सूक्ष्म होते हुए भी वे तैजस 9. (क) प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् । (ख) अनन्तगुणे परे । -तत्त्वार्थ. २/३९-४० (ग) कर्मप्रकृति से, पृ. ६६ (घ) अनन्तगुणे का अर्थ है - अभव्यों से अनन्तगुणा, और सिद्धों से अनन्तवें भाग गुणाकार । गुणाकार का प्रमाण- पल्य का असंख्यातवाँ भाग समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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