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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३६१ (उत्पन्न) होता है। अथवा आहारादि वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध तथा तैजस-कार्मण के पुद्गल स्कन्ध शरीरयोग्य परिणामों द्वारा परिणत होते हुए जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, उसे शरीरनामकर्म कहते हैं। औदारिक आदि शरीर को प्राप्त करने वाले शरीरनामकर्म के पाँच भेद हैं-(१) औदारिक शरीरनामकर्म, (२) वैक्रिय शरीरनामकर्म, (३) आहारक शरीरनामकर्म, (४) तैजस शरीरनामकर्म और (५) कार्मण शरीरनामकर्म। औदारिक आदि पाँच शरीरनामकर्मों के लक्षण इस प्रकार है(१) औदारिक शरीरनामकर्म-जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर प्राप्त हो, अथवा औदारिक अर्थात्-उदार, प्रधान या स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर, औदारिक नामकर्म से प्राप्त शरीर का नाम भी औदारिक शरीर नामकर्म है। अथवा औदारिक शरीर-प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण कर जीव औदारिक शरीर रूप परिणत करके जीव-प्रदेशों के साथ अन्योन्य-अनुगमरूप से सम्बन्धित करता है, उसे औदारिक शरीर नामकर्म.कहते हैं। तीर्थंकरों, गणधरों आदि महापुरुषों का शरीर प्रधान-उत्तम पुद्गलों से बनता है, जबकि सर्वसाधारण जीवों का शरीर स्थूल-असार पुद्गलों से बना होता है; अथवा अन्य शरीरों की अपेक्षा अवस्थित रूप से जो शरीर बड़े परिमाण वाला हो, वह औदारिक है। वनस्पतिकाय का औदारिक शरीर उत्कृष्टतः एक हजार योज़न की अवस्थित अवगाहना वाला होता है। अन्य सभी शरीरों की अवस्थित अवगाहना इससे कम होती है। यद्यपि वैक्रिय शरीर वाला (देव नारक) लाख योजन तक का शरीर बना सकता है, परन्तु वह उसकी अनवस्थित अवगाहना है। तथा भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अवगाहना तो ५०० धनुष से अधिक नहीं होती। अथवा रुधिर, मांस, हड्डी आदि से बना हुआ स्थूल शरीर औदारिक कहलाता (२) वैक्रियशरीरनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को वैक्रिय शरीर प्राप्त हो, उसे वैक्रियशरीरनामकर्म कहते हैं। जिस शरीर से विविध या विशिष्ट प्रकार की क्रिया १. (क) विशिष्ट नामकर्मोदयाप्यदितवृत्ती निशीर्यन्त इति शरीराणि । (ख) औदारिक-वैक्रियाऽऽहारक-तैजस-कार्मणानि शरीराणि । -तत्त्वार्थसूत्र २/३७ (ग) औरालिय-वेउब्विय-आहारय-तेज-कम्मण-सरीरं । -कर्मप्रकृति ६८ (घ) उदारं स्थूलम् उदारः पुरुः महानित्यर्थः । -सर्वार्थसिद्धि; धवला (ड) यदुदयवशाद् औदारिकशरीर-प्रायोग्यान् पुद्गलानादाय औदारिकशरीर-रूपतया परिणमयन्ति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहाऽन्योन्यानुगममरूपतया सम्बन्धयति तदौदारिकशरीरनामेत्यर्थः। -प्रथम कर्मग्रन्य टीका ३३ (च) स्थानांग वृत्ति । (छ) गर्भ-सम्मूर्छनजमाधम् । -तत्त्वार्थसूत्र २/४६ (ज) कर्मप्रकृति, पृ. ५९-६० (झ) ज्ञान का अमृत, पृष्ठ ३१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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