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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ ३५९ एक पर्याय को सूचित करती है। एक पर्याय में से दूसरी पर्याय में जाना हो, अर्थातमनुष्य मिटकर देव बने, या जानवर मिटकर मनुष्य बने, यह गति है। तीन लोक हैं-ऊर्ध्वलोक, जिसमें देवगति के देव रहते हैं, अधोलोक, जिसमें भवनपतिदेव और नारक जीव रहते हैं, तीसरा तिर्यक्-लोक, जिसमें मनुष्य और तिर्यञ्च रहते हैं। ये दोनों गतियाँ छदमस्थ मनुष्यों द्वारा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं। इसलिए मनुष्यगति और तिर्यञ्चगति के जीव मध्यलोक या तिर्यक्लोक में हैं। तिर्यञ्चगति में देव, मनुष्य और नारकों के सिवाय समस्त संसारी जीव-एकेन्द्रिय से तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव कहलाते हैं।' अर्थात्-तिर्यञ्च गति में एकेन्द्रिय पाँच स्थावर जीव (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति) तथा द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियातिर्यञ्च तक के जीवों का समावेश हो जाता है।२ (२) जातिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि शब्दों से व्यवहार किया जाता है अथवा जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि कहे जाएँ, वह जातिनामकर्म है।. अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं में समानता या एकता की प्रतीति कराने वाले समान धर्म को 'जाति' कहते हैं। जैसे गोत्व (गायपन) सभी विभिन्न रंगों, आकृतियों या शरीर की प्रकृति में समानता या एकता का बोध कराता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) जाति का, एक इन्द्रिय वाले जीवों में, दो इन्द्रिय (स्पर्शन एवं रसनेन्द्रिय) वाले जीवों में, द्वीन्द्रिय जाति की, तीन इन्द्रिय (स्पर्शन, रसना, घ्राण) वाले जीवों में त्रीन्द्रिय जाति की, चार इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु) वाले जीवों में चतुरिन्द्रिय जाति की, एवं पांच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) वाले जीवों में पंचेन्द्रिय जाति की एकता या समानता का बोध कराता है। इसलिए एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों के अपने-अपने वर्ग को एकेन्द्रिय आदि जातिनामकर्म कहते हैं। पूर्वोक्त पाँच जातियाँ समस्त संसारी जीवों की बताई हैं। इनमें से देव, नारक और मनुष्य तो पंचेन्द्रिय ही होते हैं, इसलिए ये पंचेन्द्रिय जाति कहलाते हैं। तिर्यञ्च एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जाति वाले कहलाते हैं। एकेन्द्रिय से पृथ्वीकायादि पंच स्थावर जीवों के एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय ही होती हैं। स्पर्शनेन्द्रिय अकेली होती है। १. (क) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३१६ (ख) तत्त्वार्थ विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. ३७६ २. स्थानांगसूत्र में गतियाँ पाँच मानी गई हैं। चार गतियाँ नामकर्म के उदय से प्राप्त होती हैं और पाँचवीं सिद्ध गति में कर्म का सर्वथा अभाव होता है। वह कर्मोदय से प्राप्त नहीं होती। सिद्ध गति का नामकर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। ३. (क) समान प्रवासात्मिका जातिः।। -कामसूत्र २/२/६६ (ख) जनन जातिः-एकेन्द्रियादि शब्द-व्यपदेश्येन, पर्यायेण जीवानामुत्पत्तिः, तद्भाव-निबन्धनभूत नाम जाति नाम । -प्रथम कर्मग्रन्थ टीका २४ (ग) इग-विय-तिय-चउ-पणिदि जाइओ । -प्रथम कर्मग्रन्थ ३३ (घ) इग-बि-ति-चउ-पच्चक्खा जाई पंचप्पयादे । -कर्मप्रकृति ६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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