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________________ ३३६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नियत अवधि तक बनाये रखना है। जब बाँधी हुई आयु का भोग कर लिया जाता है, तभी उस शरीर से छुटकारा मिलता है। चाहे कितनी भी दुःख की स्थिति हो, या चाहे जितने सुख के साधन उपलब्ध हों, उन दोनों ही स्थितियों में क्रमशः मरने या जीने की इच्छा की जाए, किन्तु आयुकर्म के अस्तित्व (सत्ता) तक उनका भोगना अनिवार्य है। जैसे कि-नरकों में जीव इतनी भयंकर दारुण वेदनाएँ, पीड़ाएँ और यातनाएँ भोगते हैं कि वे जीने की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझते हैं, किन्तु आयुकर्म के विद्यमान रहते उनकी इच्छा पूरी नहीं होती। देव और मनुष्य, जिन्हें सुख के सभी साधन प्राप्त हैं, जीने की उत्कट आकांक्षा भी रखते हैं, किन्तु बंधे हुए आयुष्यकर्म के शीघ्र पूर्ण होने पर सब कुछ छोड़छाड़ कर परलोक जाना और दूसरा स्थूल शरीर धारण करना पड़ता है। जिस प्रकार अपराधी की इच्छा होने पर भी अवधि पूर्ण होने से पहले वह नहीं छूटता अथवा सुखी मानव की इच्छा अधिक जीने की होने पर भी उसे आयु की अवधि पूर्ण होते ही उस शरीर से छूट जाना पड़ता है, इसी प्रकार आयुकर्म जीव को नियत अवधि तक शरीर से मुक्त नहीं होने देता।२ जैसे-दण्ड प्राप्त मानव को हडिबंधन में उतने काल तक रोके रखा जाता है, इसी प्रकार आयुष्यकर्म जीव को नियत अवधि तक उस देह में, या भव में रोके रखता है।३ अतः समुच्चय रूप में आयुकर्म का लक्षण हुआ-जिस कर्म के उदय से जीव देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकरूप से जीता है और उसके क्षय होने पर उन-उन रूपों का त्याग करता है, यानी मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं।४ ' आयुष्य बन्ध के छह प्रकार ___ आगामी भव में उत्पन्न होने के लिए गति और जाति आदि का बाँधना आयुबन्ध कहलाता है। इसके ६ प्रकार होते हैं-(१) जाति-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, ये पाँच जातियाँ हैं। जीव को जिस जाति में पैदा होना होता है, मरने से पहले उसका बन्ध कर लेता है। (२) गति-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, ये चार गतियाँ हैं। मरने से पहले जीव प्राप्तव्य गति का बन्ध कर लेता है। (३) स्थिति-जिस भव (जन्म) में ठहरने की जितनी कालावधि होती है, उतनी कालमर्यादा को स्थिति कहते हैं। मृत्यु से पूर्व जीव अपनी स्थिति बाँध लेता है। (४) -ठाणांग २/४/१०५ टीका १. दुक्ख न देइ आउँ, न वि सुहं देइ चउसु गईसु। दुक्ख-सुहाणाहार, धरेइ देहट्ठियं जीयं ॥ २. (क) कर्मप्रकृति से, पृ. ४४-४५ (ख) तत्त्यार्थसूत्र ८/१० (ग) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द जैन) से, पृ. २०६ ३. जीवस्स अवट्ठाणं करेदि, आऊ हडिव्व णरं । ४. कर्मग्रन्थ भा. १ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से, पृ. ९४ -गोम्मटसार कर्मकाण्ड ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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