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________________ उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-३ ३२३ इस वासना का क्षय भी एकदम नहीं हो पाता, प्रत्युत क्रमशः होता है। वासनाक्षय का प्रतिफल दो रूपों में प्रकट होता है-(१) वासनाकाल में कमी पड़ जाने पर, (२) कषायों की तीव्रता में कमी पड़ जाने पर। सम्यक्त्व प्रगट हो जाने पर अनन्तानुबन्धी स्वतः टल जाता है, तब वासनाकाल अनन्तकाल से घट कर सिर्फ बारह महीने शेष रह जाता है। इससे अधिक नहीं। दूसरी ओर, यद्यपि भोगों (की वासना) का सर्वथा त्याग नहीं हो पाता, परन्तु अपनी प्रवृत्ति के प्रति आलोचना-निन्दना-गर्हणा-क्षमापना और भावना निरन्तर बनी रहती है। इतनी मात्रा में वैराग्य या चारित्र (नैतिकता-धार्मिकता रूप) उसमें प्रकट हो जाता है। भोगों का त्याग या प्रत्याख्यान (व्यक्तरूप से) किंचित्मात्र भी न हो सकने के कारण सम्यग्दृष्टि के इस चारित्र को 'अप्रत्याख्यान' कहा जाता है। इसकी कारणभूता प्रकृति ईषत् मात्र भी प्रत्याख्यान या त्याग को आवृत किये रखने के कारण अप्रत्याख्यानावरण कहलाती है। अप्रत्याख्यानावरण के हट जाने पर उस साधक का त्याग-वैराग्य किंचित् मात्रा में व्यक्त होता है और वह आंशिक त्याग को अपना लेता है। परन्तु पूर्ण त्याग नहीं कर पाता। उसकी उक्त वासना का काल घट कर सिर्फ ४ मास का रह जाता है। पूर्ण (सर्वसावद्यविरतिरूप) त्याग को आवृत किये रखने के कारण इसकी निमित्तभूता प्रकृति को प्रत्याख्यानावरण कहा है। ___ इसका भी अभाव हो जाने पर साधक की वासनाशक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाती है। अब उसका वैराग्य इतना वृद्धिंगत हो जाता है कि वह अनगार बनकर साधुत्व का अंगीकार कर लेता है। उसका वासनाकाल अधिक से अधिक सिर्फ १५ दिन का रह जाता है। जघन्य वासनाकाल तो अन्तर्मुहूर्तमात्र रह जता है। जिसके कारण कोई भी कषाय बाहर में प्रगट नहीं हो पाती। भीतर में कदाचित् स्फुटित होती प्रतीत भी होती है तो वह तुरन्त उसे समाहित करके शान्त हो जाता है। यद्यपि बाह्य त्याग तो वह पूर्णरूप से अंगीकार कर लेता है, फिर भी अन्तरंग में अब भी संकल्प-विकल्प जागृत होकर उसकी समता में विघ्न डालते रहते हैं। स्वरूप के इस अन्तरंग ज्वलन में निमित्त होने वाली कर्मप्रकृति संज्वलन कहलाती है। इसके टल जाने पर वासना का पूर्ण क्षय हो जाता है। तब सूक्ष्म संकल्प-विकल्पों का भी अभाव हो जाता है। वासनाकाल निःशेष हो जाता है, यथाख्यात चारित्र की प्राणभूत समता-शमता प्रगट हो . जाती है और वह साधक अब वीतराग और भासक सिद्ध हो जाता है।' अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायों को पहचानने के लक्षण __ अनन्तानबन्धी आदि चारों कषायों के साथ कषाय के मूल भेदों-क्रोध, मान, माया और लोभ को जोड़ने से कषाय-मोहनीय के सोलह भेद हो जाते हैं। उक्त चारों प्रकार को चार-चार कषायों के साथ संक्षेप में कहने के लिए 'चतुष्क' या 'चौकड़ी' 1. जैनसिद्धान्त से, पृ. ६७-६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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