SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) मान-गर्व, अभिमान, अहंकार, बड़ाई, मगरूरी (प्राइड-Pride), उद्दण्डता और स्व-उत्कर्ष कथन या आत्म-प्रदर्शन को मान कहते हैं। अथवा जातिमद आदि आठ मदों के कारण दूसरों के प्रति नम्रता, या नमन-वृत्ति, मृदुता या कोमलता का भाव न होना अथवा उद्धतता रूप जीव का परिणाम भी मान कहलाता है। माया-कपट, छल, ठगी, वंचना, धूर्तता, दम्भ, दिखावा, दगा, गबन माया है। मन-वचन-काया की प्रवृत्ति में वक्रता या सरलता का अभाव माया है। विचार, उच्चारण और व्यवहार में एकता का न होना भी माया कहलाती है। लोभ-ममता, संग्रहवृत्ति, मूर्छा, गृद्धि, लालसा, तृष्णा, वासना, कामना आदि सब लोभ के अन्तर्गत हैं। बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व (मेरापन) एवं तृष्णा की बुद्धि लोभ है। परवस्तु में आसक्ति, स्वामित्व-स्थापन, मालिकी स्थापन करने की ईहा, अपनेपन का अधिकार अथवा अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की उत्कट इच्छा, लोभ के प्रकार हैं। ये चारों कषाय संसार के साथ चिपकाये रखने वाले और बहुत ही कठोर हैं। ये चारों कषाय प्राणी के चित्त को रंगीन या कसैला बना देते हैं।' चारों मूल कषायों के प्रत्येक के चार-चार भेद : उनकी संज्ञा, स्वभाव और कार्य इन चारों कषायों के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मन्द स्थिति के कारण प्रत्येक के चार-चार प्रकार बताये गए हैं। जो क्रमशः अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम स्थिति), अप्रत्याख्यानी या अप्रत्याख्यानावरण (तीव्रतर स्थिति), प्रत्याख्यानी या प्रत्याख्यानावरण (तीव्र स्थिति) और संज्वलन (मंदस्थिति) के नाम से प्ररूपित किये गए हैं। संक्षेप में इन्हें यों भी कहा जा सकता है-'तीव्रतम कषाय (प्रबलतम क्रोध, मान, माया, लोभ) को अनन्तानुबन्धी, तीव्रतर कषाय (अति क्रोध, मान, माया, लोभ) को अप्रत्याख्यानी, तीव्र कषाय (साधारण क्रोध, मान, माया और लोभ) को प्रत्याख्यानी, और मंद कषाय (अल्प क्रोध, मान, माया, लोभ) को संज्वलन कहा जाता है। इन चारों कषायों में से प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का, अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरत चारित्र का, प्रत्याख्यानावरणीय कषाय सर्वविरत चारित्र का, और संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र का बाधक घातक है।३ इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं १. (क) कर्मप्रकृति से भादांश ग्रहण, पृ. ३० (ख) जैनदृष्टिए कर्म से पृ. ६५ २. कषायों के सर्वथा अभाव से आत्मा का जैसा शुद्ध स्वभाव है तदवस्थारूप जो चारित्र हो, वह यथाख्यातचारित्र कहलाता है।-सं. ३. (क) जैनयोग से पृ. ३३ (ख) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. ३७२ (ग) पढमो दसणघाई, बिदिओ तह घाइ देसविरइ ति । तइओ संजमघाई, चउत्यो जहक्खायघाई य॥ -पंचसंग्रह १/११५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy