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________________ ३१० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) रहित) जीव अनासव (संवरधर्मी) होता है।' संवर के दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंवर। आते हुए नये कर्मों को रोकने वाले आत्मा के परिणामों (शुद्ध अध्यवसायों) को भावसंवर और कर्मपुद्गलों के आगमन के रुक जाने को द्रव्यसंवर कहते हैं। संवर के ५७ भेद हैं। निर्जरातत्त्व-आत्मा के साथ नीर-क्षीर की तरह परस्पर मिले हुए कर्मपुद्गलों के एकदेश से (आंशिक रूप से) क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो प्रकार हैं(१) द्रव्य-निर्जरा और (२) भाव-निर्जरा। आत्मप्रदेशों से कर्मों का एकदेश (अंशतः) पृथक् होना द्रव्यनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा के जनक अथवा द्रव्य-निर्जराजन्य आत्मा के शुद्ध परिणाम को भाव-निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के १२ भेद हैं। बन्धतत्त्व-आम्नव के द्वारा आगत (आकर्षित) कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ क्षीर-नीर की तरह परस्पर श्लिष्ट हो जाना-मिल जाना 'बन्ध' कहलाता है। जीव जब कषाययुक्त होकर कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, तंभी बंध होता है। अथवा राग-द्वेष-युक्त होकर आत्मा जब शुभ-अशुभ योगों में परिणमन करता है, तब ज्ञानावरणीय आदि विविध भावों से कर्मरज उसमें प्रविष्ट होती है। अनादि काल से प्रवाहरूप से यह क्रम चालू है कि राग, द्वेष, कषाय आदि के सम्बन्ध से जीव कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण-आकर्षित करता है, और उन कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध से पुनः कषायवान होता है। योग और कषाय, ये दो ही कर्मबन्ध के प्रमुख कारण हैं। बन्ध दो प्रकार का है-द्रव्यबन्ध और भावबन्ध। आत्मा के जिन परिणामों से कर्मबन्ध होता है, अथवा कर्मबन्ध से उत्पन्न होने वाले आत्मा के उन परिणामों को भावबन्ध कहते हैं। तथा कर्मपुद्गलों का आत्म-प्रदेशों के साथ दूध और पानी की तरह आपस में मिलना द्रव्यबन्ध कहलाता है। बन्ध के यों तो असंख्य भेद हैं। किसी अपेक्षा से ४ भेद हैं। मूलकर्पप्रकृतिबन्ध के ८ और उत्तरप्रकृतिबन्ध के १४८ या १५८ भेद हैं। ___ मोक्षतत्त्व-समस्त कर्मों का क्षय होना मोक्ष कहलाता है। मोक्ष के दो प्रकार हैंद्रव्य-मोक्ष और भावमोक्ष। समस्त कर्मपुद्गलों का आत्म प्रदेशों से सर्वथा सदा के लिए पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है। और द्रव्यमोक्षजनक अथवा द्रव्यमोक्षजन्य आत्मा के विशुद्ध परिणामों को भावमोक्ष कहा जाता है। मोक्ष के नौ और पन्द्रह भेद हैं। __पूर्वोक्त नौ तत्वों में से जीव और अजीव तत्त्व ज्ञेय हैं। पुण्य कथञ्चित् हेय है, कथंचित् उपादेय है। पाप, आनव और बन्ध हेय तत्त्व हैं। संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये ३ तत्त्व उपादेय हैं। १. (क) कर्मग्रन्थ प्रथम, विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से, पृ. ७३-७५ (ख) आस्रवनिरोधः संवरः । स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रैः। -तत्त्वार्थसूत्र (ग) पंचसमिओ तिगुत्तो अकसाओ जिइंदिओ। अगारयो य निसल्लो जीवो हवइ अणासयो ॥ -उत्तराध्ययन ३/३० (घ) सकषायत्वात् कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । -तत्त्वार्थ ८/२-३ (ङ) कृत्स्न-कर्मक्षयो मोक्षः। -वही, १०/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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