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________________ २८२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) हैं। उनमें से दर्शनावरण की उत्तरप्रकृतियों के मुख्य चार प्रकार हैं - (१) चक्षुदर्शनावरणीय कर्म, (२) अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म, (३) अवधिदर्शनावरणीय कर्म और (४) केवलदर्शनावरणीय कर्म। शेष पांच प्रकृतियाँ दर्शन के आवरणरूप निद्रा की हैं- (१) निद्रा, (२) निद्रा - निद्रा, (३) प्रचला, (४) प्रचलाप्रचला और (५) स्त्यानर्द्धि या स्त्यानगृद्धि। ' (१) चक्षुदर्शनावरण-चक्षु (नेत्र) दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से, चक्षु-इन्द्रिय के अवलम्बन से (आँख के द्वारा) मूर्त पदार्थ का सामान्य दर्शन होता है, सामान्य अंश जाना जाता है, अवबोध होता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। चक्षु के द्वारा होने वाले मूर्त वस्तु के सामान्य धर्म के ग्रहण (बोध) को रोकने वाले कर्म को चक्षुदर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। अर्थात् - आँख के द्वारा जो घट, पट आदि पदार्थों का सामान्य- हल्का-सां बोध होता है, उसे जो कर्म आच्छादित कर देता है, रोक देता है, वह चक्षुदर्शनावरण है। (२) अचक्षुदर्शनावरण - अचक्षु का अर्थ है - चक्षुरिन्द्रिय को छोड़ कर शेष श्रोत्र, नासिका (प्राण), रसना और स्पर्शन ये चार इन्द्रियाँ एवं मन । अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से चक्षु के सिवाय शेष पूर्वोक्त चार इन्द्रियों और मन से मूर्त शब्दादि पदार्थों के सामान्य धर्म का प्रतिभास ( दर्शन - ग्रहण) होना अचक्षुदर्शन है । ऐसें अचक्षुदर्शन को आक्रान्त - आवरित करने वाले कर्म को अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा त्रीन्द्रिय जीवों के चक्षुदर्शन के आवरण होते ही हैं। उनके चक्षुरिन्द्रिय होती ही नहीं है। चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों के चक्षु होने पर भी चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के योग (उदय) से वे अन्ध या रतान्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार जिस जीव के बाकी की इन्द्रियाँ हों, अथवा मन न हो, अगर ये इन्द्रियाँ और मन हो तो भी इनकी शक्ति या क्षमता का क्षय, नाश या ह्रास हो गया हो, ये बिल्कुल काम न देते हों, वहाँ, अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म का उदय समझना चाहिए। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, ये दोनों परोक्षज्ञान की कोटि में आते हैं, और मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से पहले होने वाले सामान्य बोध (ज्ञान) हैं। इन दोनों प्रकार के दर्शनावरणीय कर्मों के उदय से (आवरणों से) सभी इन्द्रियों और मन से होने वाला वस्तु का सामान्य बोध नहीं होता। (३) अवधिदर्शनावरणीय कर्म - अवधिदर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से श्रोत्र आदि इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा को सीधा (Direct ) रूपी (वर्ण. १. (क) जैनदृष्टिए कर्म से सारांश ग्रहण, पृ. ११४ (ख) कर्म - प्रकृति से भावांश ग्रहण, पृ. 99 (ग) चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचलाप्रचला - स्त्यानगृद्धयश्च । (घ) स्थानांग ९/६६६ (ङ) उत्तराध्ययन ३३ / ५, ६ (च) कम्मपयडी ४७ / ४८ Jain Education International For Personal & Private Use Only -तत्त्वार्थ. ८/६ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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