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________________ २६६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) पीतल का है, या मिट्टी का है? उसका रंग लाल है या वह बनारस का बना हुआ है, उसमें २० किलो पानी आ सकता है; इत्यादि ब्यौरा (विशेष रूप से) अधिक स्पष्टता के साथ विपुलमति जानता है। ऋजुमति ज्ञान सामान्यग्राही है, जबकि विपुलमति विशेषग्राही है। ऋजुमति को जो सामान्यग्राही कहा है, उसका मतलब इतना ही है कि वह विशेषों को जानता है, परन्तु विपुलमति जितने विशेषों को नहीं जानता। ऋजुमति के ज्ञान में सामान्य स्पष्टता होती है, जबकि विपुलमति के ज्ञान में विशेष स्पष्टता होती है। द्रव्यादि की अपेक्षा से दोनों का विश्लेषण ____ इन दोनों की द्रव्यादि की अपेक्षा विशेषता इस प्रकार है-द्रव्य से-ऋजुमति मनोवर्गणा के अनन्त-अनन्त प्रदेशों वाले स्कन्धों को जानता-देखता है; जबकिं विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा अधिक प्रदेशों वाले स्कन्धों को विशुद्धता और अधिक स्पष्टता से जानता-देखता है। क्षेत्र से-ऋजुमति जघन्य से अंगुल के असंख्यातभाग क्षेत्र को, तथा उत्कृष्ट से नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी (नरकभूमि) के नीचे क्षुल्लकप्रतर तक को और ऊपर ज्योतिष-चक्र के उपरितल तथा तिरछे ढाई द्वीप पर्यन्त के संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है, जबकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा ढाई अंगुल अधिक तिरछी दिशा में मनुष्यक्षेत्र के संज्ञी जीवों के मनोभावों को जानता देखता है। काल से-ऋजुमति जघन्यतः एवं उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग भूत-भविष्यत् काल के मनोभावों को जानता-देखता है, जबकि विपुलमति ऋजुम्रति की अपेक्षा कुछ अधिक काल के मनश्चिन्तित एवं जिनका चिन्तन होगा, उक्त पदार्थों को वह विशुद्ध तथा भ्रमरहित जानता देखता है। भाव से-ऋजुमति मनोगत भावों की असंख्यात पर्यायों को जानता-देखता है। लेकिन सब भावों के अनन्तवें भाग को जानता देखता है। जबकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा कुछ अधिक पर्यायों को विशुद्ध रूप से भ्रान्तिरहित जानता देखता है।२ । ___ इसके सिवाय भी इन दोनों में कुछ विशेषताएँ और हैं। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मनःपर्यायज्ञान सूक्ष्मतर, विपुलतर, विशुद्धतर और वितिमिररूप से जानता देखता है। अर्थात्-वह अधिक विशेषों को स्फुटरूप से जानता-देखता है। ऋजुमति उत्पन्न होने के पश्चात् कदाचित् चला भी जाता है, लेकिन विपुलमति एक बार प्राप्त होने पर कभी नहीं जाता। केवलज्ञान होने पर उसी में परिणत हो जाता है, और तब उसकी सत्ता अकिंचित्कर हो जाती है। विपुलमति मनःपर्यायज्ञानी आत्मा उसी भव में १. (क) जैनदृष्टिए कर्म से भावांशग्रहण पृ. १०७ (ख) ज्ञान का अमृत से पृ. २१७ (ग) विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । -तत्त्वार्थसूत्र १/३१ २. (क) कर्मग्रन्थ भा. १ (मरुधर केसरीजी) से, पृ. ५३, ५४ । (ख) उज्जुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ । ते चेव विउलमई अमहियतराए, विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ । -नंदीसूत्र १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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