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उत्तर - प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - १ २५७
मतिज्ञान से श्रुतज्ञान की विशेषता
भतिज्ञान की तरह श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में भी इन्द्रियों और मन की सहायता अपेक्षित होती है, फिर दोनों में क्या अन्तर है? इन दोनों के अन्तर का एक कारण तत्त्वार्थसूत्र में बताया कि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। किसी भी विषय को श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले उसका मतिज्ञान होना आवश्यक है। अमुक शब्दों को सुनकर श्रवणेन्द्रिय से जो शब्दमात्र का ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। जो व्यक्ति किसी भाषा को नहीं जानता है, वह भी यह God (गॉड ) शब्द है, इतना मतिज्ञान से जान लेता है, परन्तु God शब्द का अर्थ भगवान् होता है, यह उस भाषा का जानकार ही जान सकता है। अतः अमुक शब्द का यह अर्थ है, इस प्रकार का जो ज्ञान उक्त भाषा के ज्ञाता को होता है, वह श्रुतज्ञान है; जोकि मतिज्ञान के पश्चात् ही हुआ करता है। इस दृष्टि से मतिज्ञान कारण है, श्रुतज्ञान कार्य; क्योंकि मतिज्ञान होने के कारण श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है । यद्यपि मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है, किन्तु वह बहिरंग कारण है। अन्तरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है। यही कारण है कि किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो उस विषय का श्रुतज्ञानं नहीं हो सकता। जबकि मतिज्ञान के लिये मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है।
इसके सिवाय मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में विषयकृत अन्तर भी है। मतिज्ञान विद्यमान वस्तु में प्रवृत्त होता है, जबकि श्रुतज्ञान अतीत, अनागत और वर्तमान, इन कालिक विषयों में प्रवृत्त होता है। मतिज्ञान मूक है, उसमें शब्दोल्लेख नहीं होता, जबकि श्रुतज्ञान शब्दोल्लेख सहित है। दोनों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान होने पर भी मति की अपेक्षा श्रुत का विषय अधिक है और स्पष्टता भी अधिक है। श्रुतज्ञान में मनोव्यापार की प्रधानता होने से विचारांश अधिक और स्पष्ट होता है, तथा पूर्वापर क्रम भी बना रहता है। अर्थात् - इन्द्रिय- मनोजन्य दीर्घ ज्ञान व्यापार का पूर्ववर्ती अपरिपक्व अंश मतिज्ञान है और उत्तरवर्ती परिपक्व अंश है - श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञान भाषा में अवतरित किया जा सकता है - मतिज्ञान नहीं । १
शास्त्रज्ञान की अपेक्षा से श्रुतज्ञान के मुख्य दो भेद हैं- अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । अंग-प्रविष्ट के आचारांग आदि १२ ( अंगशास्त्र) भेद हैं, जबकि अंगबाह्य के औपपातिक आदि १२ उपांग, ४ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र (उत्तराध्ययनादि) और षड्आवश्यक, १० प्रकीर्णक आदि अनेक भेद हैं । २
१. (क) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, (पं. सुखलालजी) से, पृ. २५ (ख) रे कर्म. तेरी गति न्यारी से
(ग) श्रुतं मतिपूर्वं यनेकद्वादशभेदम् । तदिन्द्रियानिन्द्रिय निमित्तम् । २. (क) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलालजी) देखें, अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट की व्याख्या
(ख) कर्मप्रकृति से पृ. ६
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- तत्त्वार्थसूत्र
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