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________________ २५४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) क्षयोपशम की मंदता, उपयोग की व्यग्रता या विक्षिप्तता और अनभ्यस्तता, ये अन्तरंग असाधारण कारण हैं। पूर्वोक्त १२ प्रकारों में से बहु, अल्प, बहविध और अल्पविध, ये चार भेद विषय की विविधता पर तथा क्षिप्र आदि शेष आठ भेद क्षयोपशम की विविधता. पर आधारित हैं। मतिज्ञान के ३३६ भेदों का विश्लेषण इस प्रकार पांच इन्द्रियों और मन इन ६ के माध्यम से मतिज्ञान होता है, इन दोनों प्रकारों को इन्द्रियनिमित्त और अनिन्द्रियनिमित्त कहा गया है। इन छहों को अर्थ-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के साथ जोड़ने से २४ भेद बन जाते हैं, तथा चक्षु और मन के अलावा शेष ४ इन्द्रियों से व्यंजनाग्रह भी होता है, अतः २४ के साथ इन ४ को जोड़ने से २४+४=२८ भेद मतिज्ञान के हुए। इन अट्ठाइस भेदों को प्रत्येक को बहु, बहुविध आदि १२ भेदों से गुणा करने पर मतिज्ञान के २८४१२= ३३६ भेद हो जाते हैं। मतिज्ञान के ३४०-३४१ भेदों का विवरण प्रकारान्तर से ३३६ भेद इस प्रकार से भी होते हैं। अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चारों में से प्रत्येक के ५ इन्द्रियों और मन से होने के कारण ४४६-२४ भेद हुए, फिर २४ को बहु आदि १२ के साथ गुणा करने से २४४१२२८८ भेद हुए। तथा व्यंजनावग्रह चक्षु और मन के सिवाय शेष ४ इन्द्रियों से होने के कारण चार प्रकार के व्यंजनावग्रह का पूर्वोक्त बहु आदि १२ के साथ गुणा करने से ४४१२=४८ भेद हुए। २८८ और ४८ को जोड़ने पर मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। ये ३३६ भेद श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के होते हैं, इनके साथ औत्पातिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी, इन अश्रुतनिश्रित चार बुद्धियों को मिलाने से ३४० भेद हुए। जातिस्मरण ज्ञान को मिलाने से ३४१ भेद हो जाते हैं।२ चारों बुद्धियों का स्वरूप (१) जिस बुद्धि के द्वारा पहले बिना सुने, बिना जाने हुए पदार्थों के यथार्थ अर्थ और अभिप्राय को तत्काल ग्रहण करके कार्य को सिद्ध कर लेना वह औत्पात्तिकी बुद्धि है। इसमें स्फुरणा शक्ति तथा प्रतिभा की प्रबलता होती है। नन्दीसूत्र में नटपत्र रोहक की बुद्धि का दृष्टान्त है। (२) संतजनों, वृद्धजनों तथा गुरुजनों की सेवाशुश्रूषा १. कर्मग्रन्थ भा. १ (मरुधर केशरी जी) गा. ५ विवेचन से, पृ. ३१ २. (क) वही, भा. १, पृ. ३१, ३२ (ख) ज बहु-बहुविह-खिप्पा अणिस्सिय-निच्छिय-धुवेयरविभिन्ना। पुणरोग्गहादओ तो त छत्तीसत्तिसयभेदं ॥ ___-इसिभासयारेण (भाष्यकारेण) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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