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________________ मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २४५ दृष्टि से जीव के दान, लाभ आदि की प्राप्ति में, शुभकार्यों को करने की क्षमता में, सामर्थ्य में रुकावट डालना, अवरोध पैदा कर देना अन्तराय कर्म का कार्य है। यह जीव की आशाओं पर पानी फेर देता है। तत्त्वार्थसूत्र में अन्तराय कर्मबन्ध का एक ही कारण बताया है-शुभ कार्यों या धर्मकार्यों में विघ्न उत्पन्न करना। भगवतीसूत्र में इसके ५ कारण बताए गये हैं-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय (विज) करने से अन्तराय कर्म शरीर प्रयोग बन्ध (अन्तरायकर्मबन्ध) होता है। __कर्मग्रन्थ में अन्तराय कर्मबन्ध करने के दो कारण बताए हैं-जिनेन्द्र (वीतराग अर्हन्तदेव) की भाव-पूजा, भक्ति, श्रद्धा आदि में (उनके अवर्णवाद बोल कर या निषेध करके अश्रद्धा प्रगट करके) विघ्न डालने, तथा हिंसादि पापों में परायण रहने वाले जीव पापकर्म का बन्ध करते हैं। अपना कोई लौकिक या लोकोत्तर कार्य न बनने पर वीतराग प्रभु के प्रति अश्रद्धा-अभक्ति प्रगट करके उनकी भावपूजा-भक्तिस्तुति बन्द कर देना तथा हिंसा, असत्य, अब्रह्मचर्य, चोरी तथा ममत्वपूर्वक परिग्रहवृद्धि स्वयं करने-कराने तथा अनुमोदन करने, इसके विपरीत अहिंसादि कार्यों में अनुत्साह अश्रद्धा एवं असम्भावना प्रगट करके बाधा उत्पन्न करने, दानादि कार्यों में रुकावट डालने आदि से अन्तरायकर्मबन्ध होता है। __ अन्तराय अपना प्रभाव दो प्रकार से दिखाता है-(१) प्रत्युत्पन्न-विनाशी और (२) पिहितागामी पथ। प्रत्युत्पन्न-विनाशी अन्तराय कर्म के उदय से प्राप्त वस्तुओं का भी विनाश या लोप हो जाता है और पिहितागामी पथ अन्तराय कर्म के उदय से भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति में अवरोध या विघ्न आ जाता है अथवा विघ्न पैदा कर दिया जाता है। ____ फलितार्थ यह है कि अन्तराय कर्म का कार्य दो प्रकार का है-अपनी उपलब्ध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग न कर पाना, और किसी व्यक्ति के दान, - लाभ, भोग, उपभोग शक्ति के उपयोग में बाधक बनना। जैसे-किसी दाता को दान प्राप्त करने वाले व्यक्ति या संस्था के बारे में गलत सूचना देता है, अथवा भोजन करते या उपभोग करते हुए व्यक्ति को भोजन या उपभोग नहीं करने देता, उसकी उपलब्धियों में बाधा उत्पन्न करता है, वह भी अन्तराय कर्म बन्ध करता है। जिसके कारण भविष्य में वह उन उपलब्धियों से वंचित रहता है।' १. (क) कर्मप्रकृति से, पृ. १२५ (ख) रे कर्म ! तेरी गति न्यारी से, पृ. ८५ (ग) जैनदृष्टिए कर्म से भावांशग्रहण, पृ. ७१ (घ) ज्ञान का अमृत से, पृ. ३६३ (ज) विघ्नकरणमन्तरायस्या -तत्त्वार्थसूत्र ६/२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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