________________
२४२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
नीचकुल- उच्चकुल : आचरण - अनाचरण पर निर्भर
अधर्म, पापाचरण एवं अन्याय अनीति का आचरण करके जिस कुल ने बदनामी, अपकीर्ति एवं कुसंस्कारिता प्राप्त की हो, वह नीच कुल है। जैसे- कसाई, वेश्या, चोर, डाकू, कलाल आदि कुल। इसके विपरीत जिस कुल ने धर्म, नीति, न्याय का आचरण किया हो, अन्याय-अत्याचार पीड़ितों की रक्षा की हो, तदनुसार कीर्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त हो, वह उच्चगोत्र है। जैसे - इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश, सूर्यवंश आदि । गोत्रकर्म के दो भेद हैं- उच्चगोत्र, नीचगोत्र । '
नीचगोत्र - उच्चगोत्र कर्मबन्ध के हेतु
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरे के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन, ये नीच गोत्र के बन्ध हेतु हैं, इसके विपरीत आत्मनिन्दा, पर(गुण) प्रशंसा, दूसरे के सद्गुणों का प्रकाशन और असद्गुणों का गोपन, तथा नम्रवृत्ति एवं निरभिमानता उच्चगोत्र के बन्धहेतु हैं ।
भगवतीसूत्र के अनुसार - जाति, कुल, बल (शारीरिक शक्ति), रूप ( सौन्दर्य), तपस्या (साधना), ज्ञान (श्रुत), लाभ (उपलब्धियाँ - सिद्धियाँ) और ऐश्वर्य (वैभव, प्रभुत्व या सत्ता व स्वामित्व - अधिकार) का मद (अहंकार) न करने वाला उच्चगोत्र कर्म ( शरीर आदि) का बन्ध करता है, इसके विपरीत जो व्यक्ति उपर्युक्त आठ प्रकार का मद (अहंकार) करता है, वह नीचगोत्रकर्म का बन्ध करती है। कर्मग्रन्थ के अनुसार - अहंकाररहित गुणग्राही दृष्टि वाला, अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला, तथा देव-गुरु-धर्म के प्रति भक्तिमान उच्चगोत्र को और इसके विपरीत आचरण करने वाला नीचगोत्र को प्राप्त करता है। २
उच्चगोत्री और नीचगोत्री को स्वकर्मफल
वस्तुतः उच्चगोत्री के समस्त क्रियाकलापों में निरभिमानता, बड़ों के समक्ष विनम्रवृत्ति, गुणों का ढिंढोरा न पीटना ( अनुत्सेक) आदि होने से वह ऊँचा उठता है, तथा आत्मा की प्रवृत्ति को ऊर्ध्वमुखी बनाता है; जबकि नीचगोत्री के समस्त
१. कर्म प्रकृति से, पृ. १२४
२. (क) परात्मनिन्दा-प्रशंसेसदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य । तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य । - तत्त्वार्थसूत्र ६/२४-२५
(ख) जातिमदेर्ण कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोयाकम्मासरीर जाव पयोगबंधे। जाति-अमदेणं, कुल-अमदेणं, बल अमदेणं, रूव-अमदेणं, तव अमदेणं, सुय-अमदेणं, लाभ-अमदेणं, इस्सरिय-अमदेणं उच्चागोयाकम्मासरीर जाव पयोगबंधे ।
- भगवती श. ८, उ. ५
(ग) कर्मग्रन्थ १ / ६०
(घ) नवपदार्थज्ञानसार, पृ. २४०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org