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________________ मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २३७ ओर से चिनगारी छोड़ देता है और वायु अनुकूल हो तो एक साथ शीघ्र ही वह उस सारे घास को जला डालती है। इसी प्रकार अपवर्तनीय आयु के भोगने में सिर्फ देरी और जल्दी का ही अन्तर पड़ता है, और कुछ नहीं। दूसरा उदाहरण-गणित के एक जटिल प्रश्न को हल करने के लिए एक सामान्य व्यक्ति गुणा भाग की लंबी रीति का आश्रय लेता है, जबकि दूसरा गणितशास्त्री उसी प्रश्न को हल करने के लिए संक्षिप्त रीति का आश्रय लेता है। मगर दोनों का उत्तर एक समान होता है। तीसरा उदाहरण-एक तुरंत धोया हुआ कपड़ा जल से भीगा ही इकट्ठा करके रख दिया जाए तो वह बहुत देर से सूखता है, परन्तु उसी भीगे कपड़े को खूब निचोड़कर धूप में फैला दिया जाता है तो वह तत्काल सूख जाता है। इसी तरह अपवर्तनीय आयु में शस्त्र आदि का निमित्त मिलते ही आयुकर्म के समस्त दलिक एक साथ भोगे जाते हैं, मगर भोगे जाते हैं वे शीघ्रता के साथ। भोगना तो बँधा हुआ आयुष्यकर्म पूरा का पूरा ही होता है।' सत्ता की अपेक्षा आयु के दो प्रकार सत्ता की अपेक्षा से आयु के दो प्रकार हैं-(१) भुज्यमान और (२) बध्यमान। विद्यमान जिस आयु का भोग किया जा रहा है, वह भुज्यमान और आगामी भव के लिए जिस आयु का बन्ध किया गया है, वह बध्यमान है।२ सामान्यरूप से आयु के दो प्रकार : भवायु और अद्धायु . सामान्यरूप से आयु के दो प्रकार हैं-अद्धायु और भवायु। अद्धा शब्द का अर्थ है-काल, और आयु शब्द से द्रव्य की स्थिति समझना। अर्थात् द्रव्य का जो त्रैकालिक स्थितिकाल है, उसे अद्धायु कहते हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्यों की अद्धायु अनादिअनिधन है। न उसकी आदि है, न उसका अन्त। किन्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अद्धायु के चार भेद होते हैं-अनादि-अनिधन, सादि-अनिधन, सनिधन-अनादि और सादि-सनिधन। भवायु का अर्थ है-भव यानी शरीर का धारण करना। अर्थात्-भव धारण कराने में समर्थ आयुकर्म को भवायु कहते हैं। अथवा भवस्थिति (उसी भव से मर कर पुनः उसी भव में उत्पन्न होकर रहना) को कायस्थिति (एक काय में मरकर पुनः उसी में जन्म ग्रहण करने की स्थिति) को अद्धायु कहते हैं। अद्धायु निरुपक्रम होती है, भवायु सोपक्रमा १. ज्ञान का अमृत से, पृ. ३०९ २. कर्मप्रकृति (आ. जयन्तसेनविजयजी म.) से, पृ. ४८ ३. कर्म प्रकृति से, पृ. ४८-४९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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