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________________ (२२) वचन और कर्मणा द्वारा किए गए कार्य ही कर्म हैं। बुद्ध ने चार प्रकार के कर्मों का निरूपण किया है - कृष्ण जिनका कृष्ण विपाक होता है, शुक्ल जिनका शुक्ल विपाक, दोनों अथवा दोनों से परे ( मज्झिम निकाय - जिल्द २ पृ. ६३-६४ ) । बुद्ध कहते हैं 'कम्म दायादा सत्ता' केवल अंतिम समय में कर्म क्षय होता है पर शृंखला नए जन्म में भी बनी रहती है। बुद्ध चुल्लकम्म विभंग में शुभ नामक ब्राह्मण से कहते हैं, विकर्मों के कारण ही व्यक्ति उच्च या नीच होता है। सत्ता कम्मदायादा कम्म योनी कम्मबंधू कम्मपटि सरणो । अंगुत्तर निकाय में कहा गया है कि व्यक्ति अपने कर्मों का परिणाम है, कर्मों का दायित्व व्यक्ति का है। धम्मपद भी कहता है- “नहि पापं कतं कम्मं सज्जु खीरं व मुच्चति । इदृनतंबालमन्वेति भस्मच्छन्नोव पावको ॥” पाप व्यक्ति का उसी प्रकार अनुसरण करते हैं, जैसे राख आग का । संयुक्त निकाय का एक संयुक्त बताता है “सत्त" किस प्रकार " अत्तभावों" से कर्मों का प्रायश्चित करता है। बौद्ध मत में तण्हा (तृष्णा) आसव, काम, संखार (संस्कार) विञ्ञाण (विज्ञान) पर भी पूरा पूरा निदर्शन मिलता है और संस्कार के निरोध को दुःख का निरोध माना है ( जिल्द २, ७०.७१) यहां यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि बुद्ध के अनुसार संस्कार व्यक्ति के चरित्र को निर्धारित करने वाला मानसिक घटक है। इस संबंध में मिलिन्द प्रश्न (मिलिन्द पन्ह ) में नागसेन मिनेन्दर को उत्तर देते हैं कि आत्मा के बिना भी पुनर्जन्म संभव है । जिनमें चिन्तक मैल (क्लेश) लगा है, वे जन्म ग्रहण करते हैं, एवं जो क्लेश रहित हैं, वे पुनर्जन्म नहीं करते। आगे इसी ग्रन्थ में कहा है, “ अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम और रूप और तज्जन्य छः आयतन पुनः स्पर्श, वेदन, तृष्णा, उपादान और भव एवं जन्म और फिर रोग, भोग, शोक आदि ( मिलिन्द प्रश्न ५, ३, ९, एवं ६२ ) । अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "बौद्ध धर्म दर्शन" में आचार्य नरेन्द्र देव ने कर्मवाद (त्रयोदश अध्याय) में कर्म संबंधी बौद्ध मान्यताओं का सम्यक् विवेचन किया है। इसके अनुसार कर्म दो प्रकार के हैं, चेतना और चेतयित्व । चेतना मानस कर्म है और येतयित्वा चेतना कृत है। चेतायित्वा भी दो प्रकार का है, " कायिक और वाचिक ।" इसी प्रकार कृत कर्म और उपचित कर्म में भेद है। स्वेच्छा से अथवा बुद्धिपूर्वक किया गया कर्म उपचित है। कर्म विपाक में नियत कर्म उपचित है। कर्म की परिपूर्णता के लिए चार तत्व आवश्यक हैं- प्रयोग, मौल प्रयोग, मौलकर्म पथ और पृष्ठ । इस प्रकार विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कर्म का भी विवेचन है । ( अभिधम्मकोश) अविज्ञप्ति कर्म को सौतांत्रिक नहीं मानते। विसुद्धिमग्ग में कर्म को अरूपी कहा है। इस संबंध में एक और घटना बुद्ध के कर्म संबंधी विचार को स्पष्ट करेगी। एक शिष्य अपने सिर से होते हुए रक्त स्राव को लेकर बुद्ध के पास आया तो वे बोले “इसे ऐसा ही रहने दो। हे अर्हत तुम अपने कर्मों का फल भोग रहे हो, जिसके लिए अन्यथा तुम्हें पाप मोचन में सदियां लग जातीं। डॉ. राधाकृष्णन का यह विचार सही है कि कर्म विधान वैयक्तिक उत्तरदायित्व पर एवं भविष्य जीवन की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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