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________________ १७६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) इनमें से स्वभाव अर्थात्- प्रकृतिबन्ध और कर्मपरमाणुओं का अमुक संख्या में जीव के साथ सम्बद्ध होना अर्थात् - प्रदेशबन्ध तो जीव की योगशक्ति पर निर्भर है। जबकि स्थिति (काल मर्यादा का निर्णय) तथा फल प्रदान-शक्ति जीव के कषाय-भावों पर निर्भर है। योगशक्ति तीव्र या मन्द जैसी होगी, बन्ध को प्राप्त कर्म-पुद्गलों का स्वभाव और परिमाण भी वैसा ही तीव्र या मन्द होगा। इसी तरह जीव के कषाय भाव जैसे तीव्र और मन्द होंगे, बन्ध को प्राप्त कर्मपरमाणुओं की स्थिति और फलदायक शक्ति भी वैसी ही तीव्र या मन्द होगी । १ जीव की योगशक्ति को हवा, कषाय को चिपकाने वाले गोंद और कर्म-परमाणुओं को रजकण की उपमा दी गई है। जहाँ कोई चिपकाने वाले गोंद या तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगे रहते हैं, वहाँ हवा के चलते ही जैसे धूल के कण उड़-उड़ कर उन स्थानों पर चिपक जाते हैं - जम जाते हैं, वैसे ही जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया या प्रवृत्ति के साथ कर्म-पुद्गलों का आत्मा में आगमन - आम्रव होता है; जीव के राग-द्वेषरूप संक्लेश- परिणामों को पाकर वे जीव के साथ बंध जाते हैं। योगशक्तिरूपी वायु जैसी भी तीव्र या मन्द होती हैं, कर्मरजरूपी धूल भी उसी परिमाण में उड़ती है तथा गोंद वगैरह जितने भी न्यूनाधिक चेप वाले होते हैं, धूल उतनी ही स्थिरता के साथ वहाँ ठहर जाती है। इसी प्रकार योगशक्ति जितनी तीव्र होती है, आगत कर्म-परमाणुओं की संख्या ( प्रदेशबन्ध ) उतनी ही अधिक होती है। तथा कषाय जितना भी तीव्र होता है, कर्मपरमाणुओं में उतना ही अधिक स्थितिबन्ध और उतना ही तीव्र अनुभावबन्ध होता है । २ प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती : क्यों और कैसे ? इस विषय में ‘धवला' में एक प्रश्न उठाया गया है कि प्रकृति अनुभाग क्यों नहीं हो सकती ? इसका समाधान किया गया है कि ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति (बन्ध) योग के निमित्त से होती है, अतएव उसकी कषाय से उत्पत्ति होने में विरोध आता है। भिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाले कार्यों में एकरूपता नहीं हो सकती, इस प्रकार का निषेध है। दूसरे, अनुभाग की वृद्धि प्रकृति की वृद्धि में निमित्त होती है, क्योंकि उसके महान् होने पर प्रकृति के कार्यरूप अज्ञानादि की वृद्धि देखी जाती है। इस कारण प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती । ३ १. (क) वही, पृ. १९५ । (ख) पयडि-पएसबंधोजोगेहिं, कसायओ इयरे । (ग) कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. २१ पर भावार्थ (सं. पं. कैलाशचन्द्र जी), पृ. ५९ (घ) जोगा पयडि-पएसा, ठिइ-अणुभावा कसायओ कुणई । Jain Education International - पंचसंग्रह २०४ २. कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. २१ का विवेचन, पृ. ५९-६० ३. पयडी अणुभागो किण्ण होदि ? ण, जोगादो उप्पन्नमाण - पयडीए कसायदो उप्पत्ति-विरहादो। ण च भिण्ण-कारणाणं कज्जाणमेयन्ते, विप्पडिसेहादो । किं च अणुभाग वुड्ढी पयडि - वुड्ढि - निमित्ता तीए महंतीए संतीए पयडिकज्जस्स अण्णाणादिसस्स वुड्ढी - दंसणादो । तम्हा ण पयडि अणुभागो छेतव्वो । - धवला १२/४, २, ७/१९९ For Personal & Private Use Only - कर्मग्रन्थ पंचम गा. ९६ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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