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स्पष्ट कर कहते हैं कि “कषाय युक्त आचरण से शरीर, मन आदि में जो परिवर्तन होता है वह भी कर्म के कारण। इस प्रकार सभी क्षेत्रों में कर्म व कर्म जनित संस्कार देहादि के परिवर्तन में अन्तर्भुक्त संस्कार ही प्रधान है, जिस प्रकार स्वर्ण अनेक रूपों में परिवर्तित होकर भी स्वर्ण ही रहता है, उसी प्रकार कर्म क्षेत्र में कर्म संस्कार ही मुख्य रहते हैं (कर्मतत्त्वेर प्रतिपाद्यः बांग्ला) पुनर्जन्म का भी सबंध कर्म से है (कर्मणा बध्यते रूपं कर्मणा चोपलभ्यते (२१०-४५) इसी प्रकार हिंसा-कर्म की भी घोर भर्त्सना की गयी। (२६४-६-९) शान्ति पर्व के अतिरिक्त अनुशासन पर्व, आश्वमेधिक पर्व, आश्रमवासिक पर्व में भी कर्म का सविस्तार उल्लेख है। कहा गया है
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा । कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित् ॥
(अनुशासन पर्व-६-१0) यहीं नहीं कर्मानुरूप्न शरीर व आकृतियां भी प्राप्त होती है “कर्मजानि शरीराणि तथैवाकृतयो नृपः" (आश्रमवासिक पर्व-३४-४) स्पष्ट उल्लेख है "कुर्वते ये तु कर्माणि श्रद्धाना विपश्चितः। अनाशीर्योग संयुक्तास्ते धीराः साधुदर्शिनः।।" शान्तिपर्व में कर्म विपाक पर प्रकाश डाला गया है। उद्योग पर्व में विदुर धृतराष्ट्र से पुण्य कर्म करने वाले धर्मात्मा की प्रशंसा करते है-"प्रवृत्तानि महायाज्ञ धर्मिणां पुण्यकर्मिणाम्" (४-३५)। इसी प्रकार मोह से बुरे कर्म करने से विपरीत फल भोग कर व्यक्ति जीवन खो बैठता है और उत्तम कर्मों से सुख शान्ति पाता है, उत्तम कर्म न करने पर पश्चात्ताप होता है (६-२२-२३) व्यास के मत में यह लोक कर्मभूमि है, और परलोक फलभूमि। वन पर्व में देवदूत कहता है “कर्मभूमिरियम् ब्रह्मन् फ़लभूमि रसौमता" (२६१-३५)। उनके अनुसार कर्म मनुष्य की विशेषता है “प्रकाशलक्षणा देवा मनुष्याः कर्मलक्षणाः (अश्व ४३-२०) इसी कारण पुरुषार्थ पर इन्द्र पाणिवाद का उपदेश देता है। “न पाणि-लाभादधिको लाभः कश्चन विद्यते।" ।
..श्री भगवद्गीता के कर्मयोग पर विचार करने के पूर्व हर्म पतंजलि के योग दर्शन में कर्म सिद्धान्त के विवेचन पर विचार कर लें। साधनपाद (२-१) में पतंजलि कहते हैं “तपः स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रिया योगः" क्रिया योग है-तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।" क्रिया योग का अर्थ है "चित्तनिरोध का उद्देश्य कर कर्म करनाइससे समस्त अशुद्धियों का क्षय होता है। पुनः कर्माशय के लिए कहा है "क्लेश मूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्म वेदनीयः (२-१२) कर्माशय अर्थात् कर्म संस्कार। धर्म
और अधर्म रूप कर्म-संस्कार ही कर्माशय है। कर्माशय का संबंध वासना से है। कर्म संस्कार और वासना के पारस्परिक सम्बन्ध पर आगे विचार किया जायेगा। योगदर्शन के मत से चित्त में कोई भाव के कारण, जो स्थितिभाव हो जाता है, वही संस्कार है। विपाक होने पर अनुभवमूलक संस्कार ही वासना है। आगे के सूत्र में कर्माशय की
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