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" पाकपा
१४६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) सुइयों के ढेर के दृष्टान्त के कर्मबन्ध की चारों अवस्थाओं का विश्लेषण ___ जैनाचार्यों ने सुइयों के ढेर के दृष्टान्त से कर्मबन्ध की चारों दशाओं (अवस्थाओं) को समझाया है। किसी जगह सुइयों का ढेर पड़ा हो, उस पर हाथ लगाने से ही वे - अलग-अलग हो जाती हैं। इसी प्रकार जो कर्मों का बन्धन अतिशिथिल हो, तथा जो सामान्य पश्चात्ताप आदि से छूट जाए, उसे स्पृष्ट कर्मबन्ध समझना चाहिए।
किन्तु किसी ने सुइयों के ढेर को सूत के डोरे से बाँध दिया हो, उस गट्ठड़ को खोलने में कुछ देर लगती है। इसी प्रकार जिस कर्मबन्धन को तोड़ने में कुछ देर लगे, विशेष आलोचना आदि से छूटे, उसे बद्ध कर्मबन्ध समझना चाहिए। ___ किसी ने सुइयों के ढेर को लोहे के तार से कस कर बाँध दिया हो तो उस गट्ठड़ को खोलने तथा उन्हें अलग करने में काफी देर लगती है, अधिक प्रयत्न करना पड़ता है। इसी प्रकार जो कर्मबन्धन गाढ़ हो, जिसे तोड़ने में तीव्र तप, तीव्र शुद्ध परिणाम, : प्रायश्चित्त आदि का पुरुषार्थ करना पड़े, उसे निधत्त कर्मबन्ध समझना चाहिए।
परन्तु किसी ने सइयों के ढेर को आग में अत्यन्त तपा कर लोह-पिण्ड बना दिया हो, उन्हें अलग-अलग करना असम्भव होता है। इसी प्रकार कर्मों का गाढ़तम बन्धन, जो किसी भी उपाय से, तपस्या आदि से न छूटे, जिसका फल भोगे बिना छुटकारा ही न हो, उसे निकाचित कर्मबन्ध जानना चाहिए। “निधत्त किये हुए नये कर्मों का ऐसा सुदृढ़ बन्ध हो जाना, जिससे वे एक-दूसरे से पृथक न हो सकें, जिसमें कोई कारण कुछ भी परिवर्तन कर सके, अर्थात् कर्म जिस रूप में बँधे हैं, उन्हें उसी रूप में भोगने पढ़ें, ऐसे कर्मबन्ध को 'निकाचित' कहते हैं।'' संक्षेप में कर्मबन्ध की दो प्रकार की अवस्था : निकाचित, अनिकाचित
संक्षेप में जैनाचार्यों ने बताया कि जीव दो प्रकार से कर्मबन्ध करता है-(१) निकाचित रूप से और (२) अनिकाचित रूप से। कर्म बाँधते समय जीव के कषाय के तीव्र परिणाम हों, और तीव्र लेश्या हो तो निकाचित कर्मबन्ध होता है। अगर मन्द परिणाम और मन्द लेश्या हो तो अनिकाचित बन्ध होता है। अनिकाचित रूप से कर्मबन्धन किया हो, और बाद में जीव के परिणामों की धारा बदल जाए तो व्रत, नियम, तप, त्याग, ध्यान आदि द्वारा पूर्वबद्ध अनिकाचित कमों की निर्जरा भी हो सकती है। अनिकाचित कर्म बन्ध तीन प्रकार का बताया गया है-स्पृष्ट, बद्ध और निधत्त। जो कर्मबन्ध अतिशिथिल हो, वह स्पृष्ट, जो शिथिल हो, वह बद्ध और जो . कुछ गाढ़ हो, वह निधत्त कहलाता है। १. (क) आत्मतत्व विचार (विजयलक्ष्मणसूरी जी) , पृ. ३१०, ३११ (ख) भगवतीसूत्र खण्ड १, श.१, उ.१, सू. १-६ में निकाचित शब्द का विवेचन, पृ. २४ (आ.
प्र. समिति, ब्यावर)
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