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१४४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) तो कर लिया तुरन्त उसको पश्चात्ताप हुआ, उसने मिच्छामि दुक्कडं (मेरे द्वारा किया हुआ दुष्कृत-अशुभ कर्म निष्फल हो-मिथ्या हो) कहा, इतने से ही वह कर्म तुरन्त झड़ जाता है। दूसरे व्यक्ति की आत्मा पर पहले व्यक्ति से कषाय तथा राग-द्वेषादि की चिकनाई कुछ अधिक लगी है, उसने भी उसी कर्म का बन्ध किया, किन्तु उसका बन्ध पहले वाले से कुछ अधिक दृढ़ है, इसलिए केवल मिच्छामि दुक्कड़ और पश्चात्ताप से यह कर्मबन्ध नहीं छूटता, उसके लिए उसके द्वारा आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना और भावना आदि अपेक्षित हैं। तीसरे व्यक्ति ने भी वही कर्मबन्ध किया, परन्तु पहले और दूसरे व्यक्ति से भी उसका कर्मबन्ध अधिक सुदृढ़ होने से 'मिच्छामि दुक्कडं' या आलोचना आदि करने से भी वह नहीं छूटता। उस अधिकाधिक सुदृढ़ कर्मबन्ध से छूटने के लिए पूर्वोक्त क्रियाओं के अतिरिक्त तीव्र पश्चात्ताप और प्रायश्चित्तग्रहण अपेक्षित है। चौथा व्यक्ति भी उसी कर्म को बाँधता है, परन्तु उसकी
आत्मा के साथ कषाय एवं रागद्वेषादि की चिकनाई इतनी ठोस और सुदृढ़ है कि किसी भी हालत में कर्मबन्ध भोगे बिना नहीं छूटता। तीव्र पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त कर लेने पर भी ऐसे कर्मबन्ध का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता। इन चारों व्यक्तियों की आत्मा पर लगे हुए कर्मबन्धों को हम क्रमशः स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित के नाम से पहचान सकते हैं। चारों बन्ध-अवस्थाओं का वस्त्र के दृष्टान्त से विचार
चार वस्त्रों के दृष्टान्त से हम इन चारों बन्ध-अवस्थाओं को समझ सकते हैं-एक जगह पिसी हुई हल्दी का ढेर पड़ा है, उस पर किसी ने कपड़ा रख दिया। हल्दी के रजकण उस वस्त्र पर जरूर लग जाते हैं, परन्तु उसे जरा-सा झटकने से उसके रजकण झड़ जाते हैं। इसी प्रकार स्पृष्ट नामक कर्मबन्ध भी ऐसा है कि जरा-सा पश्चात्तापपूर्वक मिच्छामि दुक्कडं कहने से वे कर्मरज झड़ जाते हैं, चिपके नहीं रहते। एक वस्त्र ऐसा है, जिस पर तेल लगा हुआ है, वह चिकना है, यदि उसे किसी ने पिसी हुई हल्दी के ढेर पर रख दिया तो वह उससे अधिक मजबूती से हल्दी के कण चिपक जायेंगे, उस पर पानी और साबुन लगा कर धोने से वह हल्दी का रंग उतरेगा। इसी प्रकार का बद्ध कर्मबन्ध है, जो आलोचना, निन्दना, गर्हणा, प्रतिक्रमण, क्षमापना एवं भावना के द्वारा छूटता है। एक वस्त्र ऐसा है, जिस पर अलकतरा चिपक गया है। अलकतरे का गाढ़ा लेप साफ करने के लिए साबुन और पानी से काम नहीं चलेगा, उसके लिए उक्त कपड़े को मिट्टी के तेल से धोना पड़ता है, तब जाकर वह अलकतरा निकलता है। इसी प्रकार निधत्त कर्मबन्ध ऐसा है, जो पूर्वोक्त क्रियाओं से दूर नहीं होता, उसके लिए तपस्या, प्रायश्चित्त आदि कठोर अनुष्ठान करना पड़ता है। परन्तु चौथे प्रकार का वस्त्र तेल, अलकतरा, धूल के कण आदि से इतना मलिन हो गया है कि साबुन, मिट्टी के तेल आदि लगाने पर भी उसका मैल नहीं छूटता। वह कपड़ा फट जाएगा, लेकिन मैल नहीं छूटेगा। इसी प्रकार का कर्मबन्ध
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