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जिस पर हम पीछे. विचार करेंगे। याज्ञिक संस्कृति ने कर्म की विचार सरणि को हास्यास्पद बनाया। ब्राह्मण ग्रन्थों में सामान्य बातों को लेकर अनेकानेक प्रायश्चित्त करना आवश्यक गिना गया। यहां तक आडम्बर बढ़ा कि शत्रु सेना को एक अभिमंत्रित तृण से हराया जा सकता है ( ऐतरेय ब्राह्मण ३ - २२ ) । इस अपकर्ष का कारण अनियंत्रित पुरोहितवाद था। विद्वानों की यह धारणा है कि याज्ञिक प्रथा निरन्तर जटिल होती गई। यह माना जाने लगा कि "याज्ञिक के पास प्रत्येक कामना पूर्ति की कर्मकाण्डीय पुड़िया वर्तमान रहती थी" (भारतीय संस्कृति का विकास-मंगलदेव शास्त्री- पृष्ठ १६७) । यह संपूर्ण परम्परा ब्राह्मणवाद के एकाधिकार में परिणत हो गयी । दक्षिणा के साथ-साथ बलि हेतु लाए गए पशुओं के अंगों के वितरण की पद्धति भी निर्धारित हुई।
"न रजतं दद्याद् बर्हिर्षि पुरास्य संवत्सराद गृहे रुदन्ती तिश्रुतेः " - ( तैत्तिरीय संहिता १-५१) दक्षिणा में चांदी न देने वाले के घर में, एक वर्ष में ही रुदन होगा। ऋत्विज को "दक्षिणा - क्रीत" समझा जाने लगा- “यं यजमानेन क्रीताः कर्त्तार ऋत्विजः " - मन्त्र की अर्थवत्ता भी समाप्त हो गयी। इन सब का दुष्परिणाम था जातीय पतन के साथ-साथ नैतिक ह्रास । श्रीमद्भागवत में वैदिक याज्ञिकों की दुरवस्था के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-हिंसा विहारा हया लब्धः पशुभिः स्वसुखेच्छया । जयन्ते देवता यः पितृभूतपतीन खलाः - ( श्री कृष्णकथन ११-२१-३०-३२-३४) खल व्यक्ति सुखेच्छा से प्रेरित होकर यज्ञों में बलि पशुओं की हिंसा में विहार करते हैं।
उपनिषदों में कर्म की नूतन व्याख्या की गयी । सारहीन कर्मकाण्ड से पृथक कर्म का आध्यात्मिक अभिनिवेश और अधिगम प्रारंभ हुआ। कर्म को संस्कारों के साथ संपृक्त कर उसे पुनर्जन्म से जोड़ा । ईशावस्योपनिषद् का दूसरा मंत्र है "कुर्वन्नेह कर्माणिजिजीविषेच्छतं समाः । एवं त्वयि नान्ययेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरः ।" मनुष्य निष्काम कर्म करते हुए शतायु होने की कामना करे। वृहदारण्यक श्रुति कहती है, व्यक्ति की आत्मा को कर्म संज्ञा दी गयी- " आत्मैवास्य कर्मात्मना हि कर्म करोति ।" पूर्णता यज्ञ से है- और मन प्राण चक्षु श्रोत्र-कर्म इनसे यज्ञ किया जाता है (१.४.१७) उपनिषद् कहता है “पुण्येन कर्माणा भवति, पापः पापेनेन्तति ( ३.२.१३) । ऋषि ने यह निष्कर्ष निकाला कि कर्म कभी नहीं छूटता, कर्म के सहारे ही जीव टिका रहता है, पुण्य कर्म से जीव पुण्य वाला और पाप से पाप करने वाला होता है। तैत्तिरीयोपनिषद में कहा गया " यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि " (१.११.२ ) इस उपनिषद् की शिक्षाध्याय वल्ली में आचार्य कहते हैं कि हमारे अनिन्दित कर्म का ही अनुपालन करना अन्य का नहीं। श्वेताश्वतर उपनिषद् (६.११) में एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी, सर्व भूतान्तरात्मा के साथ-साथ कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः कहा गया। कठोपनिषद कहता है कि सांसारिक भोगों में लिप्त (अर्थात् कर्म करने वाले) मूढ हैं, जैसे अंधे को अंधा पथ दिखा रहा है। यही मुण्डकोपनिषद (१-५) में
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