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________________ बन्ध के संक्षेप-दृष्टि से दो कारण : योग और कषाय १३९ होती है तो धूल भी बहुत उड़ती है और वायु धीमी हो तो वह कम उड़ती है। इसी प्रकार कर्मरज का कम या अधिक मात्रा में आना, योग-वायु के वेग पर आधारित है। यदि दीवार पर पानी पड़ा हो तो उस पर लगी हुई धूल जल्दी झड़ जाती है। यदि उस पर किसी वृक्ष का दूध लगा हो तो कुछ देर में झड़ती है, और कोई गोंद लगा हो तो बहुत दिनों में झड़ती है। यही बात कषायरूप गोंद के विषय में समझिए। योग-वायु द्वारा लाई हुई कर्मरज का कम या अधिक समय तक टिके रहना, उनके द्वारा आत्मगुणों का कुण्ठित, सुषुप्त एवं अवरुद्ध अथवा घात होना कषायरूप गोंद के गाढ़े-पतलेपन (तीव्रता-मन्दता) पर अथवा उसकी न्यूनाधिक मात्रा पर निर्भर है। इसीलिए संसार के समस्त जीवों में न तो कर्म की मात्रा एक समान होती है, और न उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति बराबर होती है। इसीलिए कर्मशास्त्र में प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का आधार योग को बताया है और स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का आधार बताया है-कषाय को। आशय यह है कि यदि योगशक्ति उत्कृष्ट होती है तो कर्मपरमाणुओं का परिमाण भी तदनुसार कम या अधिक हुआ करता है, और योगशक्ति अगर जघन्य या मध्यम दर्जे की हो तो कर्मपरमाणु भी तदनुसार न्यूनाधिक मात्रा में आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। इसी प्रकार कषाय यदि तीव्र-तीव्रतर हो तो कर्मपरमाणु भी आत्मा के साथ अधिक-अधिकतर दिनों तक बंधे रहते हैं और फल भी तीव्र-तीव्रतर देते हैं। यदि कषाय मन्द-मन्दतर हो तो कर्मपरमाणु भी अल्प-अल्पतर समय तक आत्मा से बंधे रहते हैं और फल भी अल्प-अल्पतर देते हैं। सामान्यतया कर्मविज्ञान का यही नियम है। इसमें कतिपय अपवाद भी हैं, उन्हें हम 'बन्ध की विविध अवस्थाओं के प्रकरण में स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे। तत्त्वार्थसूत्र में इसी तथ्य को बहुत स्पष्टता के साथ बताया गया है। __ 'धवलां' और 'तत्त्वार्थ-वार्तिक' में बन्ध के लक्षण में योग और कषाय को प्रमुखता देते हुए कहा गया है-“जिस प्रकार किसी बर्तन में अनेक प्रकार के रस वाले अनेक प्रकार के बीज, फल, फूल आदि मदिरारूप में परिणमित हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का योग और कषाय के कारण कर्मरूप परिणमन होता है, यही 'बन्ध' कहलाता है।२ चारों प्रकार के कर्मबन्ध में दो का सद्भाव अनिवार्य यद्यपि कर्मबन्ध में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांचों को कारणरूप में माना गया है, किन्तु जब हम संक्षेपदृष्टि से विचार करते हैं तो इनमें से १.. कर्मग्रन्थ, पंचम भाग की प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री), पृ. २१ २. (क) तत्त्वार्थ वार्तिक ८/२/९ (ख) धवला पु. १३/५-५/सू. ८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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