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________________ १२८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) सुखद और अशाश्वत पदार्थों को शाश्वत मानकर चलता है। सत्य के प्रति विपर्यास अथवा सत्य दर्शन से विपरीत जानना, मानना और श्रद्धा करना मिथ्यात्व है। इसके द्विविध रूप बनते हैं-यथार्थ श्रद्धा का अभाव और अयथार्थ वस्तु के प्रति श्रद्धा। इसके भी पाँच रूप बनते हैं-दूसरों के उपदेश या प्रेरणा से या अपने गलत विचारों के परिणाम से बँध जाना अथवा किसी प्रकार का विवेक-विचार किये बिना मत, पंथ या सम्प्रदाय के कदाग्रह, पूर्वाग्रह, उपदेश के उलटे प्रवाह, और समझ का दुरुपयोग। ये सब अभिगृहीत मिथ्यात्व हैं। किसी भी प्रकार का विचार किये बिना विपरीत मत बाँध लेना, अथवा गुण-दोष का विचार किये बिना सभी धर्मसम्प्रदायों, मतों, पंथों को एक समान मानना-समझना, कहना; न तो सत्य के प्रति और न असत्य के प्रति श्रद्धान हो, यही स्थिति अनभिगृहीत मिथ्यात्व की है। किसी भी सिद्धान्त का या शास्त्र-वाक्य का तोड़-मरोड़ कर अर्थ करना, मनमानी उलटी-सीधी युक्तियों को प्रस्तुत करके अपने खोटे मत या विचार की पुष्टि करना, उसकी प्रशंसा करना और दूसरे सत्योपासक मत-पंथों, या सम्प्रदायों के यथार्थ विचार की निन्दा-आलोचना करना, खोटा और निराधार होते हुए भी अपने मत पर चिपटे रहना, सत्य समझ जाने पर भी अपनी प्रतिष्ठा जाने के भय से उक्त सत्य का स्वीकार ही न करना आभिनिवेशिक . मिथ्यात्व है। प्रत्येक विचार मत या सत्य के विषय में शंका-कुशंका करते रहना, यह सत्य है या नहीं ? इस प्रकार मन में संशयग्रस्त रहना सांशयिक मिथ्यात्व है। मोह की गाढ़ अवस्थावश विचार-विवेक के अभाव में किसी भी दर्शन, मत या विचार को यथार्थ-अयथार्थ न जान पाना और अनन्त अज्ञान में, या मूढ़दशा में रहना तथा मूर्छित प्राणी जैसे मधुर या कटु रस को नहीं परख सकता, वैसी ही प्रवृत्ति करना, अनाभोग मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व का दायरा बहुत व्यापक इस प्रकार पंचविध मिथ्यात्व में समझ का दुरुपयोग, विचारणा की मन्दता, समझ का अभाव, शंका-कुशंका का जोर अथवा स्वयं ही सच्चा है, ऐसा दुराग्रह आदि सबका समावेश हो जाता है। इस दृष्टि से मिथ्यात्व के दायरे में अनादि-अज्ञान के कारण अल्पविकास वाले या लगभग विकास-विहीन जीव भी आ जाते हैं; और वे जीव भी आ जाते हैं, जो बौद्धिक दृष्टि से विकसित हैं, आग्रही हैं, ज्ञान का दुरुपयोग करते हैं। संसार के प्रायः सभी कोटि के अधिकतर जीव प्रायः मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं; जो कर्मबन्ध का आद्य कारण है।३ कर्मबन्ध का द्वितीय कारण : अविरति कर्मबन्ध का द्वितीय हेतु अविरति है। जहाँ विरति न हो, वहाँ अविरति कहलात १. जैनयोग से भावांशग्रहण, पृ. ३३ २. जैनदृष्टिए कर्म (डॉ. मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया) से भावांशग्रहण, पृ. ३४ ३. जैनदृष्टिए कर्म (डॉ. मो. गि. कापड़िया) से भावांशग्रहण, पृ. ३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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