SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) आत्मा के साथ कर्मों का बन्ध कराने वाले कारणों का जानना अनिवार्य यह निश्चित है कि संसारी जीव जब तक कमो से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, तब तक एक भव (जन्म) से दूसरे भव (जन्मान्तर) में परिभ्रमण करता रहता है। इस संसार-परिभ्रमण का मूल कारण है-आत्मा और कर्म का सम्बन्ध या आत्मा के साथ कर्म का बन्धा जैन कर्म-विज्ञान की भाषा में यों भी कहा जा सकता है-कर्मवर्गणाओं का आत्मा के साथ श्लेष संयोग-सम्बन्ध। इसीलिए आत्मा के साथ कर्मवर्गणा का सम्बन्ध (बन्ध) कराने वाले कौन-कौन-से कारण हैं ? इस पर विचार करना अनिवार्य बताया है। दुःखमय संसार जानकर बन्ध के कारणों पर विचार आवश्यक . ..... __ अतः आत्मार्थी मुमुक्षुओं को कर्मबन्ध की जड़ों को सींचने वाले उन कारणों को जानना चाहिए क्योंकि कर्मबन्ध चाहे वह शभरूप हो या अशुभरूप, सदैव दुःखरूप है, क्योंकि जन्म, जरा, मरण, रोगादिमय संसार को भगवान् महावीर ने सदैव दुःखरूप बताया है। इस कारण इस दुःखरूप संसार से मुक्त होने के लिए भी कर्ममयं संसार के कारणों का जानना आवश्यक है। 'प्रशमरति' में राग-द्वेषादि को भवसन्तति का मूल बताया गया है जिसके विषय में हमने 'कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष' नामक प्रकरण में विस्तृत चिन्तन प्रस्तुत किया है।२ परन्तु कर्मबन्ध के कारणों पर विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न कर्मविज्ञान-विशेषज्ञों ने अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है, उसे भी जानना आवश्यक है। बन्ध व बन्ध के कारणों को जानने पर ही कर्मों को तोड़ना सुशक्य यही कारण है कि सूत्रकृतांग में सर्वप्रथम इसी तथ्य की ओर संकत किया गया है कि “सर्वप्रथम साधक बन्धन (कर्मबन्ध) का परिज्ञान (उसके कारणों आदि का जह बंधे छित्तूण य, बंधणबद्ध उ पावइ विमोक्ख । तह बंधे छित्तूण य, जीवो संपावइ विमोक्ख ॥२९२॥ बंधाणं च सहावं वियाणिआ, अप्पणो सहावं च । बंधेसु जो विरज्जति, सो कम्म-विमोक्खणं कुणई ॥२९३॥ जीवो बधो य तहा, छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहिं । पण्णा-छेयणएण उ, छिण्णा णाणत्तमावण्णा ॥२९४॥ -समयसार मूल १. (क) जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परियट्टइ । -उत्तराध्ययन अ.३३, गा.१ (ख) कम्मं च जाइ-मरणस्स मूलं | -उत्तराध्ययन अ. ३२, गा.७ २. (क) दुक्खं च जाई-मरणं वयंति । -उत्तराध्ययन ३२/७ (ख) जम्म दुक्खं जरा दुखं, रोगाणि मरणाणि च । __ अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसति जंतवो ॥ -उत्तराध्ययन १९/१५ (ग) कर्ममयः संसारः, संसार-निमित्तकं पुनर्दुःखम् । तस्माद् राग-द्वेषादयस्तु भवसन्ततेर्मूलम् ॥ -प्रशमरति ५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy