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________________ (१३) तदा कर्मेत्युदाहृता (९६-२१ ) " । योग वासिष्ठ ने कर्म का सम्बन्ध वासना से बताया है, "सर्वन्ति वासना भावे प्रयान्त्यफलतां क्रिया ( वही ) " । अन्तःकरण, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और प्राण इन सब की जो नियत क्रिया हो रही है, जिसमें उसकी अवस्थान्तरता होती है-वही कर्म है। यह क्रिया दो प्रकार की है - चेष्टा स्वतंत्रतापूर्वक एवं अविदितभाव से व्यक्ति करणों के अधीन होकर करता है। कर्मतत्त्व का प्रतिपाद्य विषय है कि कर्मों की क्रियान्विति का प्रयोजन क्या है ? और उसमें व्यक्ति का कर्तृत्व किस सीमा तक निहित है ? कर्म तत्त्व से हम शरीर और आन्तर विकार के मूल कारण को जान पाते हैं और उनका सापेक्ष रूप भी समझ लेते हैं, इसके मूल में कारण-कर्म नियम का प्रमाण किस रूप में विराजमान है ? कर्मवाद इन नियमों को प्रमाणित करता है। अतएव उसमें अन्ध-विश्वास एवं कोरे भाग्यवाद का स्थान नहीं है। कर्मवाद प्रतिष्ठित विज्ञान है। डा. पाण्डुरंग काणे के अनुसार “ इस सिद्धान्त ने सहस्रों वर्षों तक अथवा कम से कम उपनिषदों के काल से संपूर्ण भारतीय चिन्तन एवं सभी हिन्दुओं, जैनों एवं बौद्धों को प्रभावित कर रखा है, ' यही नहीं " पुनः शरीर धारण पर पश्चिम में अब तक एक बृहत् साहित्य की रचना हो चुकी है । ( धर्म शास्त्र का इतिहास-खण्ड ४- अध्याय ३५) ।” वस्तुतः कर्म-विज्ञान का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पुनर्जन्म की अवधारणा से है और भारतीय मनीषा ने इसका सर्वाङ्गीण विवेचन व अध्ययन किया है। . 27 ....... • हम कर्मवाद का विकास-क्रम देखें । प्राचीनतम वैदिक चिन्तन की प्रमुख रूप से तीन अवस्थाएं थीं - - प्रथम अवस्था मंत्रों के साक्षात्कार और उनके द्वारा आत्मसिद्धि, द्वितीय परम्परा थी ऋषियों के जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर जीवन को वैयक्तिक और लोक धरातल पर आदर्श एवं नैतिक अवधारणाओं से पूर्ण करना । इस अवधारणा में सृष्टि के सभी व्यापारों की एक अखण्ड सूत्रात्मकता का नियोजन था, तत्र को मोह: कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः (यजुर्वेद ४० - ७ ) की धारणा ने प्राणि मात्र में एकात्मदर्शन से बाह्य और आन्तरिक जीवन जगत में अविरोधपरक ऐक्य स्थापित किया । तृतीय परंम्परा कर्मकाण्ड और याज्ञिक संस्कृति की थी, जिसका प्रधान उपस्तम्भ यजुर्वेद था। यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के प्रथम (५) मंत्र में परमात्मा से श्रेष्ठ कर्म के प्रति प्रेरित करने की प्रार्थना है “इषे त्वोर्जे त्या वा यवम्य देवोवः सविता प्रापर्युतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायध्व” पुनः ४०/२ में इसी वेद की ऋचा है " कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं क्षमाः " । सामवेद की ऋचाओं में भी कर्म सम्पादन और यज्ञानुष्ठान का विवरण है (४-२-१०) पर यजुर्वेद ही कर्मकाण्ड का प्रतिपादन करता है । यों तो ऋग्वेद में भी 'कर्म' शब्द चालीस बार प्रयुक्त हुआ है और डॉ. काणे के अनुसार वहां उसका अर्थ “पराक्रम” और कुछ स्थानों पर “ धार्मिक कृत्य” है, यज्ञ, दान आदि (द्रष्टव्य - ऋचाएं १, ६१, १३, १, ६२, ६, १, १३१, १) । Jain Education International For Personal & Private Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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