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________________ कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व १०९ अज्ञान बन्ध का कारण क्यों है? साख्यकारिका में इसी प्रकार के अपूर्ण बन्ध-मोक्ष के सिद्धान्त का समर्थन करते हुए प्रतिप्रश्न किया गया है-"आपके (जैनदर्शन के ) सिद्धान्त में भी तो अज्ञान को बंध तथा दुःख का कारण बताया गया है।" आचार्य अमृतचन्द ने भी कहा है"अज्ञान के कारण मृगगण मृगतृष्णा में जल की भ्रान्तिवश पानी पीने के लिए दौड़ते हैं। अज्ञान के कारण लोग रस्सी में सांप की भ्रान्ति के कारण डर कर भागते हैं। जैसे-पवन के वेग से समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार अज्ञानवश विविध-विकल्पों की लहरें मन में उठाते हुए स्वयं शुद्ध ज्ञानमय होते हुए भी वे प्राणी स्वयं को कर्ता मान कर दुःखी होते हैं।"१ ऐसी स्थिति में 'अज्ञान से बन्ध होता है' इस पक्ष का विरोध करने का क्या कारण है? अज्ञान का अर्थ अल्पज्ञान या ज्ञानाभाव नहीं इसका समाधान यह है कि यहाँ अज्ञान का अर्थ-अल्पज्ञान या ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु अज्ञान का यहाँ अर्थ है-मिथ्यात्वभाव-विशिष्ट ज्ञान। उपर्युक्त कथन अज्ञान की प्रधानता की विवक्षावश किया गया है। यथार्थ में देखा जाए तो बन्ध का कारण दूसरा है। राग-द्वेषादि विकारों से युक्त अज्ञान ही बन्ध का कारण है। सम्यग्ज्ञान (सम्यग्दर्शन से युक्त) अल्प भी हो तो वह बन्ध का कारण नहीं होता। वीतरागता-सम्पन्न ज्ञान यदि थोड़ा-सा भी हो तो, वह कर्मराशि को विनष्ट करने में समर्थ होता है। जैसे कि परमात्म प्रकाश की टीका में लिखा है-"वैराग्य-सम्पन्न वीर पुरुष अल्पज्ञान द्वारा भी सिद्ध (मुक्त) हो जाते हैं। जब कि समस्त शास्त्रों के पढ़ने पर भी वैराग्य के बिना सिद्ध (मक्त) नहीं हो पाते।"२ इसके प्रमाण के रूप में कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा भावपाहुड में प्रस्तुत हैं दो उदाहरण (१) भव्यसेन मनि ने बारह अंग तथा चौदह पूर्वरूप सकल श्रुतज्ञान पढ़ा था, किन्तु उन्हें भाव-श्रमणत्व (भावलिंगी मुनित्व) प्राप्त नहीं हुआ। १. (क) ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः । -सांख्यकारिका ५४ . (ख) अज्ञानान्मृगतृष्णका जलधिया धावन्ति पातु मृगाः । अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाऽध्यासेन रज्जौ जनाः ॥ अज्ञानाच्च विकल्पचक्र-करणाद् वातोत्तरंगाब्धिवत् । शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्वीभवन्त्याकुलाः ।। -समयसार कलश ५८ २. (क) महाबंधो भाग १ की प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर), पृ. ६८ (ख) वीरा वेरग्गपरा थोवं पि हु सिक्खिऊण सिझति । ण हु सिझति विरागेण विणा, पठितेसु वि सव्व-सत्येसु ॥ -परमात्म प्रकाश टीका पृ. २३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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