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________________ कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ९५ सूखे काष्ठ भी जल कर भस्म हो जाते हैं। भिक्षुओं के लिए तीन प्रकार की अग्नि त्याज्य बताई है - रागाग्नि द्वेषाग्नि और मोहाग्नि । चाहे साम्प्रदायिक राग हो, मान्यताओं का ं राग-पूर्वाग्रह युक्त हठाग्रह हो, चाहे परम्पराओं, रीतिरिवाजों या रूढ़ियों का राग हो, सभी त्याज्य हैं, कर्मबन्धकारक हैं।' अपने सम्प्रदाय, परम्परा, मान्यता के प्रति राग होता है, वहाँ पर सम्प्रदायादि के प्रति द्वेष होना स्वाभाविक है, क्योंकि राग और द्वेष होनों सापेक्ष हैं। ज्ञानार्णव में बताया गया है - जहाँ पर राग का पदार्पण होता है, वहाँ निश्चय ही द्वेष भी प्रवर्तमान होता है। इन दोनों का अवलम्बन लेकर मन भी अत्यधिक विकृत होता है। विपक्ष के प्रति अरति ( घृणा - द्वेष ) स्वपक्ष के प्रति रति (राग) के बिना नहीं होती, इसी प्रकार स्वपक्ष में अरति भी विपक्ष के प्रति रति के बिना नहीं होती । २ परस्त्रीगामी पुरुष का उदाहरण स्पष्ट है। राग और द्वेष दोनों में से रागभाव छोड़ना अतिदुष्कर राग और द्वेष में द्वेष तो भयंकर है ही, इसे पहचाना जा सकता है। पति-पत्नी में परस्पर मनमुटाव हो जाए, कुछ हितैषियों के कहने-सुनने-समझाने से उनमें परस्पर द्वेषभाव दूर भी हो सकता है। किन्तु रागभाव तो इससे अधिक सूक्ष्म एवं भयंकर है। वह शीघ्र पकड़ में नहीं आता। सम्प्रदाय के प्रति कट्टरतापूर्ण राग को व्यक्ति धर्मप्रभावना का रूप देकर उसे धर्म मानने लगता है । रागभाव इतना गूढ़ होता है कि इसे जानना, पहचानना और छोड़ना उतना सरल नहीं। अतः द्वेष भाव को छोड़ना सरल है, किन्तु रागभाव को छोड़ना सरल नहीं। इसलिए केशी श्रमण मुनि ने जब गणधर गौतम से कहा कि इस लोक में बहुत-से जीव पाश से बंधे हुए हैं, फिर आप इस लोक में रहते हुए लघुभूत व पाशमुक्त होकर कैसे विचरते हैं? इस पर उन्होंने कहा - "भगवन् ! राग और द्वेष आदि भयंकर एवं तीव्र स्नेह ( गाढ़ ) पाश (बन्धन) हैं। मैं यथाक्रम से प्रभुवचनों से इनका छेदन करके यथान्याय विचरण करता हूँ।" गौतम गणधर ने राग आदि को 'स्नेहपाश - अत्यन्त गाढ़ बन्धन' कहा है। 'भामिनी विलास' में राग को तीव्र बन्धन बताया है - 'संसार में बहुत-से बन्धन हैं, किन्तु प्रेय (राग) १. (क) पातंजलयोगदर्शन २ पाद, सूत्र ७-८ (ख) रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा, प्रसादमधिगच्छति ॥ (ग) सुधर्मा अगस्त १९८९ में प्रकाशित लेख से भावांशग्रहण पृ. ६५ २. (क) यत्र रागः पदं धत्ते द्वेषस्तत्रेति निश्चयः । उभावेतौ समालम्ब्य विक्राम्यत्यधिकं मनः ॥ (ख) तद्यथा न रतिः पक्षै, विपक्षेऽप्यरतिविना । नारतिर्वा स्वपक्षेऽपि तद्विपक्षे रतिं विना ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only -गीता - ज्ञानार्णव २३/२५ - पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध ५४९ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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