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________________ ९२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) निश्चेष्ट - शू -शून्य बना दे। मन में शुभ रूप, शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श का स्मरण, मनन, रटन न करे, न ही आसक्ति, मोह, लालसा, वासना, लिप्सा आदि करे । ' राग और द्वेष के दायरे में कषाय और नोकषाय का समावेश राग और द्वेष का दायरा बहुत ही विस्तृत है। वे अपने में क्रोध, मान, माया, लोभ, इन चार कषायों तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद-नपुंसकवेद (कामवासना - त्रय) इन नी नोकषायों को भी अपने में समाये हुए हैं। इसके अतिरिक्त कषायों से मिलते-जुलते अभ्याख्यान, पैशुन्य, क्लेश, कलहभाव, रौद्रध्यान, परपरिवाद ( परनिन्दा ) भाव, संकीर्णता, कट्टरता, पूर्वाग्रहभाव मायामृषाभाव, मिथ्यादर्शनशल्य आदि मनःपरिणाम भी राग-द्वेष की परिधि में अ जाते हैं। वस्तुतः ये सब चारित्रमोह के अन्तर्गत आ जाते हैं। बृहद् द्रव्य-संग्रह में तथा धवला एवं समयसार आदि की वृत्तियों में कहा गया है कि माया, लोभ, वेद (काम) त्रय, हास्य और रति, इनका नाम राग है। संक्षेप में-माया, लोभ ये दोनों राग के अंग (भेद) हैं, तथा क्रोध और मान, ये दोनों द्वेष के अंग (भेद) हैं। इसके अतिरिक्त अरति, शोकद्वय, जुगुप्साद्वय (भय) ये नोकषाय भी द्वेष के अंग हैं। प्रज्ञापना तथा विशेषावश्यक भाष्य में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है। २ राग और द्वेष, ये दोनों कर्मबन्ध के सामान्य बीज हैं। किन्तु विभिन्न नयों की दृष्टि से विचार करने पर इन दोनों संवेदनों (परिणामों - अध्यवसायों) के इस वर्गीकरण का विस्तार हुआ। संग्रहनय की दृष्टि से दो ही संवेदन हैं- राग और द्वेष | व्यवहार और ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से ( स्थानांग सूत्र में) क्रोध और मान को द्वेषात्मक १. (क) जे सद्द-रूव-रस-गंधमागए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गेही पओस न करेज्ज पंडिए, स होंति दंते विरए अकिंचणे ॥ (ख) प्रश्नव्याकरण सूत्र सुबोधिनी व्याख्या, अ. १० अपरिग्रहसंवर, पृ. ८४९ २. (क) राग-द्वेषशब्देन तु क्रोधादि कषायोत्पादकश्चारित्रमोही ज्ञातव्यः । - उत्तरा. अ. ३२ वृत्ति - समयसार ता. वृ. - २८१ / ३६१/१६ (ख) माया - लोभ - वेदत्रय - हास्यरतयोरागः, क्रोध - मानारति-शोक- जुगुप्सा भयानि द्वेषः । - धवला पु. १२, पृ. २८३ (ग) दोसे दुविहे पण्णत्ते तं. जहा- कोहे य माणे य । - विशेषावश्यक गा. २९६९ रागे दुविहे पण्णत्ते तं जहा - माया य लोहे य । (घ) कोहं माणं वाऽपीइजाईओ वेइ संगहों दोसं । माया लोभे य स पीइजाइ - सामन्नाओ रागं ॥ (ङ) चारित्रमोहशब्देन राग-द्वेषौ कथं भण्येते? इति चेत्- कषायमध्ये क्रोधमान द्वयं द्वेषांगम् माया - लोभद्वयं रागांगम् । नोकषायमध्ये स्त्री-पुं- नपुंसक वेदत्रय हास्य- रतिद्वयं च रागांगम् । अरतिशोकद्वयं भयजुगुप्साद्वयं च द्वेषांगमिति । - बृहद् द्रव्यसंग्रह टीका । Jain Education International For Personal & Private Use Only - प्रज्ञापना पद २३ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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